Description
लीलाधर जगूड़ी का काव्य संसार निरंतर परिवर्तनशीलता, प्रयोगशीलता और वैचारिक ताजगी से भरा हुआ है। वे उन कवियों में हैं जिन्होंने कविता को जड़ता और रूढ़ि से निकालकर सतत् आत्ममंथन और नवीनीकरण की प्रक्रिया में रूपांतरित किया। उनकी कविताएँ जीवन, समाज और समय के जटिल संबंधों की ऐसी पड़ताल करती हैं, जिसमें अनुभूति और चिंतन का गहरा संगम दिखाई देता है। ‘शंखमुखी शिखरों पर’ से लेकर ‘ख़बर का मुँह विज्ञापन से ढका है’ तक की यात्रा में जगूड़ी ने कविता को केवल भावनात्मक विस्तार नहीं, बल्कि एक बौद्धिक अनुशासन और रचनात्मक तर्क के रूप में प्रतिष्ठित किया है। वे भाषा के प्रयोग को एक सर्जनात्मक अन्वेषण मानते हैं, जहाँ शब्द केवल अर्थ नहीं बल्कि विचार की गहराई का माध्यम बनते हैं। आधुनिक उपभोक्तावादी समाज, राजनीति, धर्म और अर्थतंत्र की विडंबनाओं पर उनकी पैनी दृष्टि कविता को समकालीन चेतना का साक्ष्य बनाती है। उनकी कविताओं में संवेदना की ऊष्मा और विवेक की दृढ़ता एक साथ उपस्थित रहती है, जिससे वे अपने समय के सबसे प्रासंगिक कवियों में गिने जाते हैं। जगूड़ी की कविता वस्तुतः मनुष्य और समाज के उस अंतर्विरोधी अनुभव का दस्तावेज़ है, जिसमें सृजन की जिजीविषा और परिवर्तन की आकांक्षा एकाकार हो जाती है।
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