Description
मुनव्वर राना की क़लम की स्याही में अवध की मिट्टी की ख़ुशबू है तो उनकी संवेदना में माँओं, बच्चों, लड़कियों और बुजुर्गों के लिए हमदर्दी। गाँव से उनका रिश्ता आज भी अटूट है। यों वे अरसे से कोलकाता जैसे महानगर में रहते रहे हैं, तो उससे तो उनका दिली रिश्ता है ही, जैसा कि उन्होंने कहा भी है– कलकत्ता मेरे साथ रहा में जहाँ गया / फिर कैसे मेरे लहजे का जादू न बोलता, पर लखनऊ के साथ ऐसी बात नहीं है लखनऊ की अदाओं पर फ़िदा होने के विपरीत राना के अहसास से लगता है, उसके मिज़ाज को सियासी सरगर्मियों ने बदला है बक़ौल राना- ‘बड़ी मुश्किल से आते हैं समझ में लखनऊ वाले, दिलों में फ़ासले लब पर मगर आदाब रहता है’ किन्तु नगरों से सोहबत के बावजूद उनका कभी शहर से याराना न हुआ। तमाम ग़ज़लों में उन्होंने अमीरे शहर को लानतें भेजी हैं जबकि उनसे मिलिए तो उनके चेहरे पर क़स्बाई मुहब्बत की कलियाँ खिल उठती हैं।
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