लीक से हटकर

समालोचना एक गंभीर कर्म है- ‘रचना’ को खोलना, समझना और पाठक श्रोता के माध्यम से जन-मानस तक पहुँचाना। एक गंभीर विधा की गंभीरता को नेपथ्य में रखते हुए एक हँसती, खिल-खिलाती, चुलबुली शैली में संस्मरण को क्या कहेंगे आप?

आप जो भी कहना चाहें, कहें। हिमालय की तराई के एक गाँव में किसान पिता के पसीने से भीगे, खूँटी पर टंगे कुर्त्ते की गंध से श्रम के प्रति पूज्य भाव और श्रमजीवी के प्रति सहज मैत्री को आजीवन निभाने वाले विश्वनाथ त्रिपाठी कई बदलाव करते हैं। किसी विधा में श्रेष्ठ रचना पर बात करने से पहले रचनाकार पर बात करते हैं। कई बार पाठक को लगता है कि मनगढंत को विज्ञान सम्मत बनाने और सिद्ध करने वाला यह कौशल कहाँ से आया? उनके लेखन को पढ़िए तो एक सूत्र हाथ लग सकता है। उनके गुरु जो तीस वर्ष की उम्र में गुरुओं के गुरु का दर्जा हासिल कर चुके थे, पढ़ने, गुनने, मथने से अघाते नहीं थे। जो अघा जाए, उसे भक्ति की भाषा में प्रेरित करते थे- ‘रामचरित जे सुनत अघाहीं। रस-विशेष पावा तिन नाही’। पढ़ो और पढ़ो। मथो और मथो। जितनी भाषाएँ सीख सको, सीखो। अपने पहले ही उपन्यास ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ से हिंदी उपन्यास लिखने वालों की पहली पाँत में समादृत होने और उसी तरह के चार उपन्यास लिखने के बाद भी कहते थे- ‘मेरे उपन्यास में इतिहास-भूगोल क्यों खोजते हो? यह बताओ पढ़ते हुए मज़ा आया कि नहीं। मैं तो गप्प मारता (लिखता) हूँ। अगर तुम्हें मज़ा आया, तो मेरा काम पूरा हुआ।’

त्रिपाठी जी ने भरत सिंह उपाध्याय जैसे अप्रतिम विचारक, लेखक और बुद्ध को जीने की कोशिश करने वाले अंग्रेजी, संस्कृत, पाली के उद्भट विद्वान से हिंदी जगत को परिचित कराया। उनको न पहचानने वाले दिल्ली के विद्वानों के लिए त्रिपाठी जी लिखते हैं– ‘पूज्य को अपूजित रखना अपराध कहा गया है, लेकिन है वह वस्तुतः दुर्भाग्य। जो सम्माननीय है, उसे सम्मान देने की पात्रता सबमें नहीं होती। भारत में अभिनन्दनों, षष्टिपूर्तियों की बहार है। इन सम्मानीयों और सम्मानकों में  इतनी हीन भावना है कि वे ईमानदार आदमी की चर्चा, उसका उल्लेख भी सहन नहीं कर सकते।’

त्रिपाठी जी के बड़प्पन की नींव में है उनकी विनम्रता। एक पत्रिका के संपादन के समय अरुण प्रकाश के साथ काम करने को अपना सौभाग्य मानते हुए वे लिखते हैं– “यह समझ मुझमें नहीं थी। उनके कहने से आ गयी। मुझे हर्ष और कुछ-कुछ गौरव की अनुभूति हुई कि ऐसे विवेकवान व्यक्ति के साथ मैं काम कर रहा हूँ।”

अपने गुरु आचार्य द्विवेदी के भाषणों की विशेषता बताते हुए त्रिपाठी जी लिखते हैं– “भाषण कविता का यह तेवर अख्तियार कर लेता। ‘गिराअनयन नयन बिनु बानी।’ और पंडित जी का भाषा-प्रवाह-टूट कर ऐसा प्रभाव डालता कि श्रोता, वक्ता का मर्म पा लेते। अकथनीय मानो कह दिया गया। उनका भाषण श्रोताओं की अनुभूति बन जाता।… यों तो अनेक विषयों पर वे अद्वितीय भाषण देते थे किंतु कालिदास और कबीर पर उनके जैसा बोलने वाला हमारे समय में कोई नहीं। वे विद्वानों और अल्पाक्षरों दोनों की सभा में अपनी बात कहकर अभूतपूर्व प्रभाव पैदा कर सकते थे।” उदाहरण के रूप में त्रिपाठी जी ने अल्पाक्षर नेता गेंदासिंह का भाषण उद्धृत किया है।

आचार्य द्विवेदी के भाषण की विशेषता बताते हुए त्रिपाठी जी लिखते हैं– “विचारों को सामान्य जनता के बोध-स्तर से समझना-समझाना उनके जीवन-संदर्भ में उन शब्द-विचारों को दृश्य बनाकर परिचित कराना पुनराविष्कार है, उन्हें जीवन-संदर्भ देना है। तब वे विचार आत्मीय होते हैं।” यह देखना और पाठक को दिखाना भी है। रचना को अंततः त्रिपाठी जी समझने की प्रक्रिया ही मानते हैं। “रचनाकार जानते हैं कि रचना-प्रक्रिया सत्य और सौंदर्य के निरन्तर उद्घाटित होने की प्रक्रिया है। रचनाकार और पाठक का अंतर अहंकार के कारण बीच में आता है। मुझे कभी-कभी लगता है, पाठक का अहंकार भी आड़े आता है आलोचक समीक्षक का अक्सर सर्जक और पाठक के बीच एक मायावरण पड़ा रहता है बस।”

हिंदी समालोचना के इतिहास में पहली बार लेखक-पाठक-समीक्षक के व्यक्तित्व-अहंकार को भी इतनी सूक्ष्मता के साथ विश्वनाथ त्रिपाठी देख रहे हैं। देखने की यह प्रक्रिया कितनी दूर तक जाती है? शिल्प, शैली, रूप-विधान, सब समझने, समझाने की प्रक्रिया है। द्विवेदी जी के उपन्यास अतीत में देखने, समझने-समझाने की ही प्रक्रिया में रचनाएँ बनते हैं। अतीत के बारे में उनकी जानकारी, उनकी संवेदना में औत्सुक्य, द्विवेदी के प्रिय कालिदास का शब्द ‘पर्युत्सुकी भाव’ जागता होगा और वे उसे रचनाधर्मिता की प्रक्रिया में साक्षात बनाते होंगे। रचनाधर्मिता की केमिस्ट्री में अतीत-वर्तमान, संवेदना, बोध, विक्षोभ सब गहन संश्लिष्ट होकर सघन अखण्ड हो जाते होंगे। उस अखण्ड को ही विखण्डन की आवाज़ आजकल ज़ोर से सुनाई पड़ रही है। अतीत और वर्तमान का द्वंद्व बोध तो प्रस्थान है। रचना में क्रियामाण होते समय परम व्यापक, परस्पर गुणित और अंततोगत्वा अखण्ड बन जाता है। यह कोई अगम रहस्य नहीं। पाठकीय आस्वाद और रचनाकर्मी के संवेद्य में अंतर केवल पक्ष का मालूम पड़ता है। रचना-प्रक्रिया में ही रचना के आस्वाद ही आस्वाद-प्रक्रिया भी चलती रहती है- द्वौ सुवर्णौवाली-एक ही के दो रूपों- भोक्ता और द्रष्टा की बात है। टी.एस. इलियट द्वारा उद्धृत किये जाने के बाद यह प्रतीक हिंदी समालोचकों द्वारा बहुत बार रटंत रूप में दुहराया जाता रहा है किंतु जिस रूप में आचार्य विश्वनाथ त्रिपाठी इसे समझ और समझा रहे हैं, वैसा तो अब तक कभी नहीं हुआ।

त्रिपाठी जी ने कविता, कहानी, साहित्य का इतिहास, संस्मरण सभी विधाओं में अपनी मौलिकता का परिचय दिया है। ‘हिंदी साहित्य का संक्षिप्त इतिहास’ इंटर के छात्रों के लिए लिखा गया। प्रकाशित होने पर आई.ए.एस. की परीक्षा की तैयारी करने वालों का सबसे प्रिय बन गया। ‘आरंभिक अवधी’, ‘हिंदी आलोचना’, ‘लोकवादी तुलसीदास, मीरा का काव्य’, ‘कुछ कहानियाँ कुछ विचार’, ‘देश के इस दौर में’ (परसाई केन्द्रित), ‘जैसा कह सका’ (कविता संग्रह), ‘नंगातलाई का गाँव’ (उपन्यास), ‘गंगा नहाने चलोगे’ और ‘व्योमकेश दरवेश’ (गुरुजन एवं समकालीनों का स्मरण), बिसनाथ का बलरामपुर (आत्मकथा)। अनेक पत्रिकाओं में अभी भी लिख रहे हैं। बहुतों से साक्षात्कार कर रहे हैं।

सभी में प्रयुक्त त्रिपाठी जी की शब्दावली पर आधारित विश्वनाथ त्रिपाठी साहित्य कोश, हिंदी और साथ ही अन्य उपभाषाओं के लिए भी अनमोल
धरोहर होगी।

इस पुस्तक के प्रकाशन में सर्वाधिक रुचि केशव मोहन पाण्डेय ने ली।  उनके साथ वेदप्रकाश, सुरेश ऋतुपर्ण, पवन माथुर, ओम निश्चल एवं त्रिपाठी जी के प्रेमी पाठकों का भी आभार ।

– रामदेव शुक्ल

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