बाढ़ में बनारस

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‘काहें भीड़ लगल हे गुरु ?कवनो कांड हो गयल हौ का भाय…?” ऑटो में बैठे एक सज्जन ने हाल जानना चाहा।
“अरे नाहीं कुल बाढ़ देखे आयल होइहन,ससुर खलिहर लोगन के कउनो काम -धाम त हौ ना।’ऑटो वाले ने गुटखा थूक मुंह पोछते कहा।
“तनी रोकता त हमहूँ देखतीं ए बचवा कि गंगा जी केतना बढ़ियायल हईं।”एक बुजुर्ग महिला ने हुलस कर ऑटो वाले को तर्जनी से कोंचा।
” अच्छा! त तोहरे कहले बिच्चे सड़क पर हम गाड़ी रोक दिंही अउर पुलिस क मार -डंडा सहीं। आंय…।” ऑटो वाले ने आधे मन से कहा और आधे मन को उफनती -गरजती वरुणा की ओर मोड़ दिया।जब उसे भी लगा कि बाढ़ का बवाल और तमाशे के रोमांच -सुख से किसी भी विध मन को रोका नहीं जा सकता तो उसने एक किनारे ऑटो खड़ा कर दिया।
“का गुरु ! कवनो बूड़ गयल ह का ? का देखत हउवा लोग ?” ऑटो वाले ने खेल- तमाशे में शामिल होने के रोमांच में रमते हुए पूछा।
“नाही,सब बाढ़ देखे आयल ह।”कहने वाले के सुर में बाढ़ का पानी हहरा रहा था।
“तनी हमहूँ देखीं त ए बचवा, तनी कगरी होता…।” ऑटो वाले की जिज्ञासु सवारी बूढ़ा भी उतर आयीं।
” हेतना बड़ -बड़ मेजुका बाढ़ में कहंवा से बह के आईल होइहन हो?”बूढ़ा ने मोटे लेन्स के चश्मे को आँखों के बीचोबीच जमाते हुए कहा।
“ऊ कुल लइका हउवन स छोट-छोट पौड़त हउवन स,तोहके मेजुका देखात हउवन आंय ?”ऑटो वाले के साथ -साथ और भी तमाशबीन ठठा पड़े।
” आछा-आछा… कुल न बूड़ गयल ह।बतावा हुन्हवा ले पानी चहुँप गयल।एहू बरीस कुल अन्न-धन, अदिमी जन राई-छायी हो गइलन।हमरे मोहलवा में त नाव चलत ह।का बतायीं ए बचवा एहि में चोरन क लहान बइठ गयल ह।जे आपन घर-बार छोड़ के हिताई-नताई गयल ह ओकर ई कुल नाव वाला समान चोरा ले जात हउवन । ई कुल घोंघा के काहें के सरिअवले हऊ लोग हो ?” चौकाघाट पुल का उतराई वाला कोना घोंघा बेचने वालियों से सजा रहता है।
” ई खायल जाला अम्मा, बहुते फयदा करे ला।कहा त तउल दिहीं दू किलो।”एक घोंघे वाली ने अपनी मैली केशराशि से जूं निकाल चुटकियों में मींजते हुए कहा।
“राम राम राम अब इहो कुल खायल जात ह का।भरसक परलय आवत ह आंय… छि छि छि चला इन्हवा से ए बचवा।मारे बसात ह …नाक ना दिहल जात ह। बूढ़ा जब तक बाढ़ का लहराता -हहराता पानी,पानी में तैरते छोटे बच्चों,बूड़ते घरों को देखने में मगन थीं तब तक उन्हें बदबू नहीं आ रही थी।अब घोघों की बोरियों, छील कर के निकाले गये सफ़ेद-गुलाबी ,धूसर लिजलिजे माँस के छोटे-छोटे टुकड़ों को देखते ही गिजगिजाती, गनगनाती भाग खड़ी हुयीं ऑटो के पास।
” हमरो कुद्दे क मन करत ह, एह समय जउन पउड़े में मजा आयी ऊ फिर कब्बो आयी कि ना कहल ना जा सकत ह।” एक युवक कब से तैरते ,किल्लोल करते बालकों को देख ललचा रहा था।
” ढ़ेर जिन ललचा,अबहीं उनके पता चल जायी न जवन खुल्ले में कुल्ला करे पर बैन लगवले हउवन, त जान जइहा कुल हुलास हेरा जाय।अबहीं कहीं से सीटी बजावत कवनो आ जाई अउर जवन धोई ,जवन धोई कि पता चली।
“तोहूँ धोवायल जनात हउवा,कय बेरी पीछे से सीटी बाजल बतावा.. बतावा।अरे , एक जनी के त एहि सिटिये बजावे में दांत काट लेहलस एक ठउरा।”
इसी तरह का गलचऊर करता है बनारस आजकल।बाढ़ की बेहाली और तंगहाली में यह अजब ढब है खुद को बचा ले जाने का…. जियो बनारस,जियो।
  • डॉ सुमन सिंह

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