गजल

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ज़माने का दस्तूर क्या बन गया है
शहर का शहर बावरा बन गया है
कभी उसके तेवर में तुर्शी थी कितनी
वो कवि था मगर मसख़रा बन गया है
उसे तोल पाना असंभव था बेहद
मगर आजकल बटखरा बन गया है
असहमत हैं जो मुल्क के हुक्मराँ से
वतन उनका ही कटघरा बन गया है
ये बिजली ये बादल ये घुड़की ये आंसू
सियासत का यह पैंतरा बन गया है
दबे उसके भीतर हैं सुधियों के पिंजर
वो जीते जी ही मक़बरा बन गया है
छुपाए हुए राज़ दिल में ही `निश्चल`
वो ख़ामोशियों की सदा बन गया है
  • ओम निश्चल

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