• मधु कांकरिया
फूल को बिखरा देने वाली हवा
कौन कहता है चलनी नहीं चाहिए।
समूचा जगत जला देने वाली आग
कौन कहता है लगनी नहीं चाहिए।
– भगवान प्रसाद मिश्र
एक अजीब उदास शाम थी वह। अंधेरा आगे था, शाम पीछे। पांव आगे थे, मन पीछे। पहली मर्तबा उस शाम जिंदगी को और अपने होने को शिद्दत से महसूसा मैंने। अहसास की नर्म माटी के साथ ही साथ कंकड़-पत्थर भी झेले। ‘जेल’ शायद पहली बार उस शाम मन में बसे इतिहास से निकलकर मेरे वजूद से जा चिपका। मेरी टाइलर के ‘भारतीय जेलों पांच साल’ के पृष्ठ आँखों के आगे फड़फड़ाने लगे। ‘कामरेड’ शब्द के अर्थ उन्होंने जेल के भीतर रहकर ही तो जाने थे। क्या ऐसे ही कुछ अर्थ मेरी जिंदगी में भी शामिल होने वाले हैं?
20 मार्च, 2007। नंदीग्राम का सोनाचूड़ा गाँव। किसानों की खेती की जमीन का जबरन अधिग्रहण करने के विरोध में जब मुझे भी ‘कृषि जमीन रक्षा समिति’ के बैनर तले आंदोलनकारियों के साथ धारा 144 को तोड़ने के आरोप में धर लिया गया और राजनीति कैदी की हैसियत से ढाई दिन तक अलीपुर सेंट्रल जेल में ठूंस दिया गया तो भीतर घबराहट से कहीं ज्यादा उत्तेजना और रोमांच के तत्व थे। जाने कितनी फिल्मों में देखे जेल-दृश्य-धारीदार पायजामे, जेल की सलाखें, काली-भूरी जेल कोठरियाँ, चक्की पीसती औरतें, पत्थर तोड़ते कैदी, ताला खोलता संतरी, भगत सिंह की भूख-हड़ताल, छब्बीस साल जेल की काल-कोठरी में बिताने वाले नेल्सन मंडेला, सब-कुछ तिर-तिर तैरने लगा। मेरे चारों ओर दृश्य ही दृश्य थे। तैरते, डराते, रोमांचित करते और मैं उत्तेजित था इन काल्पनिक दृश्यों को वास्तविक आँखों से देखने के लिए। इस कारण पुलिसिया गाड़ी में सारे सफर के दौरान जहाँ मैं इतिहास जी रहा था, मेरे सारे संगी-साथी पश्चिम बंगाल को किसी राजसी आधुनिका की तरह चमकता-दमकता देखने की ख्वाहिश में जी-तोड़ जुटे मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य की औद्योगिक नीतियों के नट-बोल्ट खोलने में तल्लीन थे।
बातों के टुकड़े रह-रहकर मुझसे टकरा जाते। मेरी चेतना हिल-डुल जाती। भीतर बाहर चला आता और बाहर भीतर। आंच से सुलगती रेनु दी बोलीं, ‘इनसे तो रॉबिन हुड सरीखे डाकू ही कहीं अच्छे थे जो अमीरों की जमीन-जायदाद लूटकर गरीबों को बांट देते थे, ये पायजामा कम्युनिस्ट तो…।’
वे बात पूरी कर भी नहीं पाई थीं कि उतावले अभिजीत ने बीच में ही झटक लिया उन्हें, ‘अब बुद्धदेव भी बेचारे करें तो क्या करें, उनकी भी तो सारी कोचिंग वहीं से होती है, जहाँ के प्रधानमंत्री ने मार्क्स और माओ, दोनों की मिट्टी पलीद करते हुए कहा– अहा! कितनी शानदार चीज है यह अमीरी। भाई जो भी कहो, सर्वहारा-फकीरी से चुनिंदा अमीरी में प्रत्यावर्तन का अनुभव होता ही ऐसा है। क्या फर्क पड़ता है कि बिल्ली सफेद है या काली, जब तक कि वह चूहा पकड़ती है।’
फेंटा कसकर दीपंकर महाशय भी आगे आए, ‘पहले हमारे बुद्धदेव को स्वप्न में सर्वहारा दिखते थे, अब तेज रफ्तार में भागती दौड़ती बिल्ली दिखती है। समानता, सर्वहारा का चिंतन तो फिजूलखर्ची लगना ही है। बिल्ली की खूंखार कंजी आँखों के सम्मोहन से शायद कहीं डर भी गए हैं, बेचारे इस कारण बिल्ली के लिए रास्ता साफ करने में लगे हैं। अब इसी बिल्ली दौड़ में कुछेक हजार चूहे मर भी जाएँ तो क्या हर्ज? यह तो जमाने से ही होता आया है। नंदीग्राम के चूहे क्या कोई अनोखे चूहे हैं! देखना, बिल्ली दौड़ेगी और लाख टके की सस्ती कार में दौड़ेगी। बचे हुए भूखे नंगे चूहे अपने बिलों में दुबके देखेंगे इस शाही नजारे को। अब चूहों का दुःख भी भला कोई दुःख है? दुनिया की कौन सी सियासत का आंचल भीगा है चूहों के इन आंसुओं से।’
चेहरा तमतमा गया रेनु दी का जैसे नंदीग्राम के सारे चूहे उनके चेहरे से चिपक चुनचुना रहे हों। तल्ख स्वरों में कहा उन्होंने, ‘इस बिल्ली की टांग तो हम तोड़ देंगे। बस, जनता जरा सा साथ दे दे।’
उनकी सारी उम्मीदों और स्वप्नों पर बुलडोजर चला दिया अभिजीत ने, ‘जनता की भली कही। उसकी तो सारी ऊर्जा, सारा दमखम अपने अस्तित्व को बचाने में ही खप जाता है, जहाँ दाएं-बाएँ तक देखने को फुर्सत नहीं। सुना नहीं दिहाड़ी संजय राव के बारे में, बेचारा ट्राम की पटरी ठीक कर रहा था। देर रात तक काम करते-करते इतना थक-मर गया कि वहीं लुढ़क गया पटरी पर ही। भोर में कंडक्टर ने ट्रायल के लिए पटरी पर ट्राम दौड़ाई। कंडक्टर को अंदेशा नहीं था कि कोई पटरी पर भी सो सकता है। उसने ट्राम दौड़ाई और वह थककर बेसुध। ट्राम चली गई। मर गया। न भूख से, न हारी बीमारी से। हाड़तोड़ मेहनत से तो क्या करेगी ऐसी थककर बेदम हुई जनता? यह हर युग का सत्य है। जब पोरस और सिकंदर के बीच घमासान युद्ध चल रहा था तो उससे थोड़ी ही दूरी पर इस युद्ध से निरपेक्ष किसान हड्डी-तोड़ मेहनत कर रहे थे, खेत में हल चला रहे थे तो रेनु जी, समय और फिजां में बहती हवा हो जनमानस तैयार करती है। आज फिजा में अय्याशी है, समर्थ और समृद्ध दिखने की हवस है।’
बाहर टुपुर-टुपुर बरसा होने लगी थी। मौसम ठंडा होते-होते खुशनुमा होता जा रहा था पर भीतर इतनी गरमागरम बहस चल पड़ी थी कि विचारों के फरिश्ते भाप बन जहां-तहाँ उड़ने लगे थे, इस कदर कि पता ही नहीं चला कि कब सत्ताइस किलोमीटर की दूरी बस ने तय कर ली और अलीपुर सेंट्रल जेल की बाहरी चाइनीज दीवार को पार कर हम मुख्य द्वार तक पहुँचे।
बड़ा सा लोहे का कपाट और उस पर जड़ा बड़ा सा अलीगढ़ी ताला। बंद शाही दरवाजे के सपाट सीने में खुलती छोटी सी खिड़की। आसपास ढेरों पुलिस। हमारी बड़ी सी सरकारी गाड़ी के लिए शाही दरवाजे को खोला गया। चूंकि हम राजनीतिक बंदी थे, पुच्छल तारे की सी दो-एक दिन की हमारी हस्ती! इस कारण सबसे पहले हमें जेल सुपरिंटेंडेंट मिस्टर मंडल के कक्ष में बैठाया गया, फिर गिना गया। जेल के मुख्य द्वार के एकदम करीब बना हुआ उनका बड़ा सा कमरा। कमरे के सामने वाली दीवार पर टी.वी. के सात-आठ मॉनिटर, तीन कलर में लगाए हुए। इन्हीं मॉनिटरों द्वारा सिगरेट के धुएँ के छल्लों से घिरे मिस्टर मंडल। जेल के हरेक वॉर्ड, हरेक सेल, सिंगल सेल, डॉर्मिटरी और कंडेम्ड सेल की गतिविधियों पर नजर गड़ाए हुए थे।
एकाएक मुझे लगा जैसे हम जेल सुपरिंटेंडेंट के कक्ष में नहीं, वरन् किसी क्लास रूम में बैठे हैं। हमारे ठीक सामने ब्लैक बोर्ड था, ठीक वैसा ही जैसा स्कूल के दिनों में हुआ करता था। बोर्ड की ऊपरी पट्टी पर चॉक और डस्टर भी हू-ब-हू स्कूल के दिनों वाले।
बोर्ड पर कुछ आंकड़े थे। कुछ जिंदगियाँ थीं। उनका लेखा-जोखा था या कहिए कि जिंदगियों की दास्तान ही आंकड़ा बनी हुई थी। बानगी इस प्रकार थीः सजायाफ्ता कैदी-5, लाइफर (उम्र कैदी)-50+6, सिम्पल इम्प्रीजमेंट-1056+60, रिगरस-इम्प्रीजमेंट-78-21 यानी कुल दो हजार एक सौ चौंतीस जिंदगियाँ थीं वहाँ, अपने-अपने अपराध के अनुसार, अपने-अपने खेमे में।
मैंने एक नजर मॉनिटर पर दौड़ाई। बीच वाले मॉनिटर में एक कैदी के साथ एक संतरी खड़ा था। कैदी टॉयलेट गया था, संतरी बाहर खड़ा उसकी निगरानी कर रहा था। वह सिंगल सेल का हार्डकोर कैदी था। नक्सलवादियों के जमाने में जब जेल कैदियों से खचाखच भरा था, तब ऐसी व्यवस्था नहीं थी। सेल के भीतर ही गड्डा खोद दिया जाता था हगने के लिए।
फोन पर मिस्टर मंडल किसी उच्च अधिकारी से बतिया रहे थे, शायद जेल सचिव से। बात करते ही मिस्टर मंडल के चेहरे पर दूसरा चेहरा चिपक गया था। जिस पर परेशानी की रेखाएँ चमकने लगी थीं। हमारे आ जाने से उनकी रोजमर्रा की व्यवस्था गड़बड़ा गई थी। ललाट पर सिलवटें। स्थिर पुतलियों से उन्होंने हमें देखा। नाक पर लुढ़क आए चश्मे को ऊपर खिसकाया और थोड़ा तनकर बैठ गए कुर्सी पर, फिर एक गहरी नजर उन्होंने डाली हम पर। हमारी शक्ल-सूरत से उन्होंने हमारे भीतर के शैतान या इनसान का जायजा लिया और सिर पर हाथ रखकर सामने खुले रजिस्टर पर कुछ मांडते रहे। फिर वे अभिजीत की ओर मुखातिब हुए। बिल्ली की तरह आँखें मिचमिचाते हुए कहा उन्होंने ‘देखिए, एक तो कम स्टाफ और जो है उसमें भी अधिकांश को खपा दिया है जेल की सीमा सुरक्षा में, लिहाजा राजनीतिक कैदी होते हुए भी एक बार तो हमें लोगों को डॉर्मिटरी में अन्य कैदियों के साथ ही रखना पड़ेगा।’ आधा-पौना हँसते हुए उन्होंने फिर एक जुमला उछाल दिया-चलिए हंसों को कौओं के बीच बैठा देते हैं।
हे भगवान! हत्यारों और डकैतों के साथ रहना। हम सबकी सामाजिक हैसियत एकाएक शेयर मार्केट की तरह नीचे लुढ़क गई थी।
कुछ सघन पल… बाहर कई चिड़ियाँ एक साथ चहकीं। हमारे कुछ साथियों को जैसे साँप सूंघ गया था पर मेरे लिए इस सूचना से जिंदगी में दिलचस्पी एकाएक बढ़ गई थी। भीतर पूनम का चांद उग आया, जिसने जेल नहीं जाना, जानो उसने जिंदगी को संपूर्णता में नहीं जाना, जाने कहाँ पढ़ा, कब का पढ़ा संवाद कानों में कूं-कूं करने लगा।
याद आया, नक्सली नेता काकू (आशीष चटर्जी) का वह जेल अनुभव जिन्हें चौबीस घंटे डंडाबेड़ी में रखा जाता था, जिसके कंडेम्ड सेल में इतना सघन अंधेरा और जानलेवा सन्नाटा था कि छह महीनों तक तो उन्होंने संतरियों के अलावा किसी इनसान की सूरत तक नहीं देखी थी और कई बार तो संतरी जब खाने की थाली लाता तो वे खुद समझ नहीं पाते कि यह खाना दिन का है या रात का।
बहरहाल, हम मंडल साहब के कक्ष से डॉर्मिटरी की तरफ। प्रथम दृष्टि से जेल बहुत रमणीय लगा। दूर-दूर तक फैला, जहां-तहाँ देवदार, कृष्णचुरी, राधापुरी के पेड़ और छोटे-मोटे दर्जनों गमले मौसमी फूलों के। क्या सौंदर्य और अपराध हमबिस्तर होते हैं, हो सकते हैं? कौन जाने प्रकृति और सौंदर्य धीमे-धीमे भीतर के कचरे को बाहर कर अपराधी के जीवन को अर्थ और सौंदर्य से स्पंदित कर दें। सोए सत्व को जगा दें, जीवन के संस्पर्श से मन के मौसम को फिर खिला दे।
मैं फिर विचारों की जुगाली करने लगा कि जैसे जेठ में सावन हुआ। 25-26 वर्ष का एक सुंदर सुदर्शन तिरछा युवक सामने पड़ गया। उम्रकैदी। माथे पर गिरे बाल और चेहरे पर ताजे खून की चमक। न कैदियों से धारीदार पायजामे, न सिर पर टोपी। न कोई नंबर। साफ टी-शर्ट और पैंट। जैसे कॉलेज जाता कोई युवक।
अपने ही साथी के मर्डर के अपराध में उम्रकैदी था वह।
यह और हत्यारा। मैं उसके साथ हत्यारा शब्द को किसी भी प्रकार जोड़ नहीं पाया। कल्पना में कैसा तो बिंब था हत्यारे का। मोटा-तगड़ा। काला-कलूटा चेहरा। बचपन से संचित हत्यारे के मिथक को उन क्षणों में टूटते देखा।
पीछे से अभिजीत फुसफुसाया– ‘हत्यारों के क्या सींग-पूंछ होते हैं?’
मिस्टर मंडल के होंठों पर हंसी किसी बूढ़ी चिड़िया-सी फड़फड़ाई। होंठों को वक्र कर कहा उन्होंने– ‘माँ कसम, दबंग से दबंग शेर भी यहाँ आकर चूहे बन जाते हैं।’
मैं अनायास ही उस उम्रकैदी के चेहरे पर लिखी उस अदृश्य इबारत को पढ़ने की असफल चेष्टा करने लगा, जिसके चलते वह यहाँ आया था। भीतर के अजायबघर का वह कौन सा अंधेरा रहा होगा, जिससे एकाएक साँप निकल आया होगा। खुदा मर गया होगा, शैतान जाग गया होगा। फिर जिंदगी के टुच्चेपन से उपजी निर्ममता ने ही मार डाला होगा उसे। मैं उसके बीते वक्त के रेशे रेशे को थामने और सुलझाने में लगा था कि तभी विचारों के उलझे सुलझे धागों को फिर एक झटका लगा। उसी समय शाम की घंटी बजी। घंटेभर का समय जो कैदियों के टहलने का होता है, वह शेष हो चुका था। परिंदे वापस घोंसलों में लौटने लगे थे। सभी कैदी अपनी-अपनी डॉर्मिटरी या बैरक या सिंगल सेल की ओर।
हम भी आगे बढ़े कि दाईं ओर कुछ महिलाओं के खिलखिलाने की आवाज इस कदर हवा के झोंके के साथ झूमती हुई हम तक पहुँची कि जेल कविता हो गया। मिस्टर मंडल ने बताया कि वह हंसी महिला वार्ड से आई थी। महिलाओं ने अपनी जिजीविषा से जेल को भी घर बना डाला था। बहरहाल, जेल के एकदम दूसरे कोने में बसी बड़ी सी हॉलनुमा डॉर्मिटरी का एक कोना दे दिया गया हमें। लगभग 80-90 कैदी। कई उम्रकैदी। देखकर विश्वास करना मुश्किल कि यह हत्यारों और संगीन अपराधियों का जमावड़ा है। एक विदेशी को देखकर मैं बुरी तरह चौंका। शताब्दियों का सम्मानबोध। अपने बेड के पास बैठा वह ट्रांजिस्टर सुन रहा था। उसे कस्टम वालों ने पकड़ा था।
हर कैदी ने धरती को बहुत कम घेरा था। धरती का लगभग उतना ही टुकड़ा, जिसमें अंट जाए उसका सिंगल बेड। कुछ कैदी गोल-गोल घेरा बनाकर ताश खेल रहे थे। कुछ हल्ला कर रहे थे। कुछ के होने का कोई हल्ला नहीं था। एक कागज की नौका बनाकर अपने अकेलेपन से खेल रहा था। हरेक ने अपने-अपने ढंग से अपनी जिंदगी को साध लिया था। हर बेड के नीचे कैदियों की छोटी सी गृहस्थी थी, जिसमें अमूमन खाने की एक अल्युमिनियम की थाली, गिलास और एक-दो कपड़े थे। कहीं कोई चादर या कंबल भी। किसी बेड के पास छोटा सा ट्रांजिस्टर तो कहीं बिसलरी की प्लास्टिक की बोतल। अपवादस्वरूप एक बेड के नीचे हॉर्लिक्स की बोतल और ब्रिटेनिया का बिस्कुट का पैकेट। वह शायद बीमार था। ताज्जुब कोई भी फिल्म में दिखाए कैदी जैसा नहीं था। न धारीदार पायजामा, न सीने पर टंगा कैदी नंबर। न टोपी-वोपी। सब अलग-अलग अपने अलग-अलग परिधान में। यदि जेल की चेतना को दिमाग से माइनस कर दिया जाए और गोल घेरे में बैठे ताश खेलते कैदियों को दृश्य से हटा दिया जाए तो मंजर बहुत कुछ उदासियाँ बिखेरता किसी अस्पताल की उदास इमारत के जनरल वॉर्ड सा।
हमें कैदियों से बहुत घुलने-मिलने और बात करने की आज्ञा नहीं थी। शायद जेल अधिकारियों को डर था कि हम राजनीतिक कैदी कहीं उनका ब्रेन वॉश न कर दें, इसलिए हम सभी ने टापू की तरह अपना एक अलग घेरा बना डाला था। रेलगाड़ी के वातानुकूलित कोच की तरह। हम हँस रहे थे, कहकहे लगा रहे थे, क्योंकि हमारे पास स्वप्न थे, उम्मीदें थीं, भविष्य था। हमारे लिए जेल सिर्फ एक प्लेटफॉर्म थी, जिस पर हमें मुश्किल से डेढ़ या दो दिन गुजारने थे। जबकि बाकी सभी कैदियों के चेहरे पर एक महीन सौ उदासी थी, जो हमें देख और सघन हो गई थी। शायद हमें देख उन्हें अपने जेल पूर्व के जीवन की मधुर स्मृतियों ने बेचैन कर डाला था, जब उनके पास भी तितली सी आजादी थी। अपने घर का बिस्तर, अपने घड़े का पानी और अपने चूल्हे की रोटी थी।
रात धीरे-धीरे ढलने लगी थी। सभी कैदी अपने-अपने सिंगल बेड पर सो गए थे। मैं नींद को रिझाने की चेष्टा में था पर हवा में तैरती सीली-सीली सी गंध, भिन्न-भिन्न भिनभिनाते मच्छर और चूहों की खटर-पटर मुझे सोने नहीं दे रही थी। मैं आँखें मूंदे आने वाले दिन के बारे में सोच रहा था कि एकाएक उनींदी चेतना किसी के पदचाप से चौकन्ना हुई। क्या कोई मेरे करीब आ रहा है? हत्यारों और अपराधियों का यह जमावड़ा। क्या आवाज दूँ मंडल को? कि अभिजीत को? मैं उठकर बैठ गया। मैं हैरान। परेशान। गहरे सांवले रंग, बढ़ी दाढ़ी और खिचड़ी बालों वाला एक अधेड़ सा युवक मेरे सिरहाने खड़ा मंद-मंद मुस्कुरा रहा था। बाप रे! कहीं यह मुझ पर हमला… पर वह निहत्था था, थोड़ा उदास भी। क्षणांश में ही कौंधा जब हम डॉर्मिटरी में घुस रहे थे, वह दरवाजे से सटकर बैठा हुआ था, बाहर निकलने को बेताब। तब मंडल ने उसकी ओर देखते हुए होंठों को तिरछा करते हुए कहा था ‘एक ये है फन्ना खां, निश्चित फांसी थी पर बाल-बाल बच गया। अजीब कैरेक्टर है… आधी रात को उठ-उठकर अपने आप ही बतियाने लगता है तो कभी फूट-फूटकर रोने लगता है।’
‘पर उसका अपराध…’ झिझकते हुए पूछा था मैंने। ‘अपराध?’ उनकी मूंछ का कोना फिर फड़का, किफायती शब्दों में कहा उन्होंने अपने ही मालिक को पत्थर फेंककर मार डाला था उसने।’
आधी रात के सन्नाटे में उसे ऐन अपने सामने देखा तो होश उड़ गए। घबरा गया मैं। कहीं गला ही न टीप दे मेरा। क्या चिल्लाऊँ? कि तभी देखा वह वापस मुड़ रहा था।
जाने भीतर क्या उमड़ा कि मैंने धीमे से कहा, ‘सुनो।’
वह रुक गया।
मैंने थोड़े ठंडेपन से कहा, ‘क्या बात है?’
‘कुछ नहीं, नींद नहीं आ रही थी, सोचा आपसे बतिया लूँ।’
‘नींद नहीं आ रही है पर क्यों? मैं तो नया हूँ पर तुम लोग तो अभ्यस्त हो चुके हो इस माहौल के।’
मैंने उसके नींद नहीं आने का मजाक सा उड़ाया। उसने ठंडा सा जवाब दिया, ‘नींद तो आई पर रात जितनी नहीं। नींद थोड़ी, रात ज्यादा है।’
‘क्या?’ नींद थोड़ी, रात ज्यादा, यह कैदी है या कवि? मैं सचमुच अवाक् था। फिर भी मैंने उसे समझाते हुए कहा, ‘देखो, हम राजनीतिक कैदी हैं, हमें यहाँ जनरल कैदियों से बात करने की मनाही है।’
‘हूँ…’ उसका चुचका चेहरा और सिकुड़ गया। होंठ टेढ़े हो गए। उपेक्षा से कहा उसने, ‘अपराधी तो यहाँ सभी हैं। कोई बड़ा कोई छोटा। फर्क यही है कि बड़ा होना हगे पर बालू डाल देता है।’
‘क्या?’ मेरे भीतर कुछ पिघला। ध्यान से देखा उसकी ओर… शांत करुण चेहरा। दुबला-पतला हड़ीला। बिना बटन की ढीली ढीली कमीज। उलझे, अस्त-व्यस्त बाल। पीलापन लिए धब्बेदार पायजामा। प्लास्टिक की चप्पल। शायद वह ऐसी इमारत थी, जिसे उस दुनिया में कोई पढ़ने वाला नहीं था। वह आया था मेरे पास कि मैं पढ़ लूँ उसे। मैंने उसे बैठाया और बात शुरू करने की गरज से पूछा, ‘डॉर्मिटरी का दरवाजा कब खुलता है?’
‘नहीं पता।’ टांगों को हिलाते हुए कहा उसने।
‘नहीं पता, आप कितने साला से यहाँ जेल में हैं?’
उसने दांत निपोरे और उंगलियों के जोड़ को चटकाते हुए कहा, ‘यह जेल कहाँ है, यह तो मेरा देश है। इस देश के भीतर ढेर सारे दरवाजे हैं और हर दरवाजे के भीतर अलग-अलग दुनिया है।’
‘अच्छा, अच्छा आप इस देश में कब से हैं?’ मैंने उसकी बकवास पर विराम लगाते हुए पूछा।
उसने उंगलियों पर कुछ हिसाब लगाया और जम्हाई लेते हुए फूं-फां की भाषा में कहा, ‘ग्यारह महीने, तीन सप्ताह, छह दिन और आठ घंटे।’
‘हे भगवान!’ मैंने माथा पीट लिया। ‘तो भी नहीं पता कि दरवाजा कब खुलता है, क्या आपको बाहर निकलने की बेताबी नहीं होती?’
‘मैं तो बाहर ही रहता हूँ, दरवाजे तो मन के भीतर होते हैं।’
‘क्या?’ मेरी दिलचस्पी ने एकाएक उछाल मारी। आदमी अभी तक मुझे सिरफिरा लग रहा था, अब एकाएक उसका कद बढ़ गया था।
‘आप किस अपराध में यहाँ हैं?’ मैंने फिर पूछा।
‘अपराध? मैंने कोई अपराध नहीं किया।’ उसकी आँखों के चाकू ने खरोंच दिया मुझे।
‘हाँ, मैंने एक सूअर को मारा था।’ वह फिर संजीदा हो कहने लगा, ‘नहीं सर जी, मैं गलत बोल गया, सूअर तो धरती की गंदगी को सफाचट करता है। फिर सूअर तो देखने में सूअर लगता है, वह किसी को धोखा नहीं देता। मैंने जिसे मारा वह तो धरती पर गंदगी फैला रहा था पर देखने में वह सूअर नहीं, सुदर्शन लगता था। दरअसल, मैंने एक नरभक्षी को मारा।’
मैंने एकाएक पूछा, ‘आपका नाम?’
उसने कुछ जवाब नहीं दिया, बस दाहिने पैर के अंगूठे से जमीन को खुरचता रहा। मैंने पूछा, ‘आपका नाम?’
‘कैदी नंबर चार सौ ग्यारह।’ शब्द शब्द को चबाते हुए और गले पर जोर डालते हुए कहा उसने।
चालीस को छूती उम्र। सब-कुछ साधारण। मंझोला कद। ढीला पड़ता चेहरा। पर उसकी आँखों से अजीब सम्मोहन झड़ता था।
बात को आगे बढ़ाते मैं फिर पीछे लौटा, ‘आप कह रहे थे कि आपने एक नरभक्षी को मारा।’
‘हाँ, नरभक्षी को मारा।’ वह बोला और उससे ज्यादा उसकी आँखें बोलीं।
‘क्या नरभक्षी होते हैं? मेरे जानते तो ये सिर्फ परियों की कहानियों में ही होते हैं।’
‘क्यों नहीं होते हैं, मैंने देखा है, ठीक वैसे ही जैसे आपको देख रहा हूँ। अंतर यही है कि पहले वे दिखते थे, उनका चेहरा कुरूप होता था। उनको देखकर घृणा जागती थी। वे खालिस मांस खाते थे पर अब उनके खाने और दिखने का तौर-तरीका भी बदल गया है। अब वे दिखते हैं खूबसूरत, भ्रम देते हैं सुगंध फैलाने का पर खाते हैं सहप्राणियों का सारा सत्।’
एकाएक वह उत्तेजित हो उठा था। शांत जलाशय से उफनती नदी बन गया था।
मेरा माथा चकरा गया। क्या माजरा है। एक बार तो शक भी हुआ कि कहीं वह मुझे फंसा तो नहीं रहा। मैंने गौर से देखा उसकी ओर पर वैसा कुछ भी नजर नहीं आया मुझे उसके चेहरे पर जो उसे दुष्टता के लिए उकसाए। यदि कुछ था उन आँखों में तो चमकती हुई एक सच्चाई थी। यदि कुछ था उसके चेहरे पर तो एक ठहराव था, एक महीन सी उदासी। एक थकान। एक ऊब। बात करते-करते वह कभी अपने में डूब जाता तो कभी अतीत में खो जाता था।
मैं उठने लगा कि उसने फिर बैठा लिया मुझे। मैं प्रश्नाकूल हो उसकी ओर देखने लगा कि होंठों पर जीभ फेरते हुए कहा उसने, ‘मैंने फिर गलत कहा सर, दरअसल मैंने एक नरभक्षी नहीं, वरन् एक डलिया फूल को मिटाया था।’
‘आपने जिसे भी मारा हो, मुझे अब कोई दिलचस्पी नहीं।’ आधी रात को गहन सन्नाटे में जाने कैसा तो डर मेरे भीतर रेंगने लगा था कि मैं उसे भगाकर वापस अपनी सुरक्षा के घेरे में लौटने को व्याकुल हो उठा कि तभी उसने याचनाभरे स्वर में कहा, ‘बस आखिरी बात सुन…।’ बोलते-बोलते उसका गला अवरुद्ध हो गया था और एकाएक जैसे उसके भीतर से एक दूसरा कैदी निकल आया हो। बेबस, बेहद उदास और गमगीन, जिसकी चरम लाचारी और यातना से पुते चेहरे को देख मेरे डर की स्वाभाविक मृत्यु हो गई। मैंने गौर से देखा, वह हल्के से कांप रहा था। उसकी आँखों के कोर पर आँसू ठिठके थे और वह युद्ध कर रहा था उन आंसुओं से। मैंने उसके कंधे पर हाथ धरा तो वह ढह गया… निःशब्द रोता रहा। बोलते की चेष्टा में वह गों… गों सा कुछ कहने लगा कि तभी दाहिने हाथ का बेड चिल्लाया, ‘आबा शुरू हो गेछे… चोप कर, घुमोते पारछी ना (फिर शुरू हो गया, चुप कर, सो नहीं पा रहा)।’ मैंने अपना बेड छोड़ दिया और उसे लेकर एक कोने की तरफ खिसक गया। होंठों पर जीभ फेरते हुए वह फिर कहने लगा, ‘सर जी, आपने देखे हैं डलिया फूल? नहीं सर जी, पहले नहीं होते थे। अब होते हैं।’
‘अब होने लगे? क्या मतलब? फूल तो प्राकृतिक होते हैं।’ मैं फिर झल्लाया। बात का सिर-पूंछ कुछ भी पल्ले नहीं पड़ रहा था और यह था कि बाउंड्री लाइन पर ही अड़ा था, आगे बढ़ने का नाम नहीं।
‘नहीं सर जी, ये पूरी तरह प्राकृतिक नहीं होते, इनमें मानव बुद्धि भी लग जाती है, इस कारण ये प्राकृतिक फूलों से बहुत बड़े आकार के होते हैं। प्राकृतिक फूल छोटे-छोटे लगभग एक आकार के होते हैं। हाँ तो सर जी, मैंने एक बार देखा, एक गमले में बहुत मोटा सा इकलौता डलिया फूल। जी मैं कॉटन मिल से ऑफिस आ रहा था, वहीं देखा था मैंने। मुझे ताज्जुब हुआ, मैंने माली से पूछा-इतना मोटा डलिया फूल! यह इतना मोटा कैसे? मैंने तो छोटे-छोटे डलिया फूल ही देखे थे अब तक। उसने कहा– यह स्वाभाविक रूप से माटी से फूटा फूल नहीं, यह डिजाइनर फूल है, जिसे अप्राकृतिक ढंग से मोटा बनाया गया है। मैं गोबर गणेश, उसकी तरफ ताकता रहा। उसने फिर समझाया-देखो, मैं गमले में बीज डाल देता हूँ, स्वाभाविक है कई बीज अपनी जड़ों सहित अंकुरित होते हैं। मैं सिर्फ एक फूल की जड़ को छोड़कर बाकी सभी फूलों की जड़ों को काट देता हूँ, जिससे वे अंकुरित होने के पहले ही दब जाएँ। इससे होता यह है कि बाकी फूलों के हिस्से की खाद, धूप, पानी भी इस अकेले फूल को मिल जाती है जिससे इसका आकार बड़ा होता जाता है।’
मैंने हैरान होकर कहा– तुम ऐसा क्यों करते हो?
माली ने कहा– सुंदर लगते हैं।
‘और तभी मेरी निगाह उस फूल को सहारा देने के लिए गमले में लगाई गई बांस की खपच्ची पर पड़ी। मैंने पूछा-यह बांस की खपच्ची क्यों लगाई? माली ने जवाब दिया-मूर्ख! यह भी नहीं जानते कि इतना मोटा फूल अपने बलबूते इतनी पतली टहनी पर कैसे टिका रहेगा? इसको सहारा देने के लिए खपच्ची लगानी पड़ी। तो सर जी, जिस दिन मैंने डलिया फूल की सुंदरता का रहस्य जाना, मानो दुनिया भर की सुंदरता का रहस्य मेरे सामने खुल गया। आज का यह विकास पैटर्न उस एक क्षण में मेरे सामने पूरी तरह काँध गया। सारे पर्दे फट गए। मनुष्य द्वारा निर्मित इस सुंदरता की नींव में कितने आँसू, अपमान, कुरूपता और हिंसा भरी पड़ी है। क्या बताऊँ सर जी…’ एकाएक उसे खांसी का जबर्दस्त दौरा पड़ा। मैं घबरा गया, कहीं दूसरे कैदी जाग न जाएँ, वह भी शायद सजग था और मुँह दबा दबाकर खांस रहा था। मैं अधीर हो उठा, कौन जाने मंडल को कोई रिपोर्ट ही कर दे या मंडल ही कहीं से प्रकट हो जाए और अपनी मूंछों को ऐंठते हुए कहे हो गई आपकी ब्रेन वॉशिंग शुरू… और यह है कि गढ़ता ही जा रहा है रूपक एक के बाद एक। मैं उठने को हुआ कि उसने मेरी कमीज का छोर पकड़ लिया बस सर जी, अब इस रामायण का यह अंतिम अध्याय जानो। शायद वह अब उस बिंदु पर था, जहाँ उसके मन के मनों मलबे के नीचे दबा मोहनजोदड़ो सिर उठा चुका था। वहाँ से लौटकर आना उसके लिए अब संभव नहीं था।
वह फिर अपने प्रवाह में बहने लगा था।
‘हाँ, तो सर जी! मैंने जिसे मारा एक डलिया फूल था। फर्क बस इतना कि वह डलिया फूल किसी गमले में नहीं वरन् हमारी कॉटन मिल में था। उसकी तोंद हमारे खून और कलेजे के कतरों से फूली हुई थी। उस गमले की माटी में हमारे पसीने, खून और आँसू की खाद थी। उसकी खपच्चियाँ उसके अंगरक्षक थे जो उसे सहारा देकर उसकी बड़ी सी गाड़ी से उसे उतारते। वह इतना गोल-मटोल था कि जमीन पर गिरी चीज तक को नहीं उठा सकता था।’
‘पर तुमने उसे मारा क्यों?’ मैंने फिर उस पर लगाम कसी।
अपने खिचड़ी बालों पर हाथ फेरते और अपने काले-भूरे मसूड़ों को दिखाते हुए वह हँस पड़ा, एक उदास हंसी, ‘हाय रे भगवान! आप आंदोलन के लोग और आप अभी तक समझ नहीं पाए कि हमने उसे क्यों मारा। हमने उसे मारा कि सबको अपने हिस्से की धूप, हवा, पानी और खाद मिल सके। सब मिल सकें। उस एक को आबादी की नींव में जाने कितनों की बर्बादी छुपी हुई थी। हम हर दिन इंच-इंच भुखमरी की ओर बढ़ रहे थे। आम की गुठलियों को पीस पीसकर उसका आटा बनाकर खा रहे थे, हम गलते जा रहे थे और वह खा-खाकर इतना मुटाता जा रहा था कि अपना भार भी खुद नहीं सँभाल पा रहा था।’ एकाएक उसका चेहरा नन्हे से शिशु में बदल गया था, जिसका बहुमूल्य खिलौना छिन गया हो और स्वर बहुत करुण हो गया। करुण और पवित्र, जैसे वह हत्या की कहानी नहीं, वरन् देवी-देवता की कहानी सुना रहा हो। उन लम्हों में एकाएक मुझे लगा कि इससे ज्यादा प्राकृतिक सहज और नैसर्गिक कोई इनसान हो ही नहीं सकता था।
‘क्या बताऊँ सर जी! उस फूल को उखाड़ने के लिए मैंने अपने को मार डाला। मैं फिर जन्मा। हिंसा करना और मारना सीखा। मैं एक मच्छर तक नहीं मार सकता था, क्योंकि मैं सोचता कि उसे भी जीने का अधिकार है। मैंने बहुत पीड़ा से गुजरकर यह हत्या की। मुझे सम्राट अशोक याद आते, जिन्होंने जीवन की शाम में अहिंसा को अपनाया… और मैं? पर मैं क्या करता मेरे भीतर जो कुंड जल रहा था, उसके खून से ही बुझ सकता था। जब पहली बार मैंने जाना कि मनुष्य के भीतर कितना भयंकर जंगल और कितने खूंखार दरिंदे छिपे रहते हैं, जो उसे जीने नहीं देते। मेरी हालत ऐसी हो गई थी कि मेरे ख़याल में सिवा बदले के कुछ और रहता ही नहीं था। मुझे जाना होता हावड़ा तो मैं पहुँच जाता सियालदाह। मैंने काली माँ की चौखट पर जाकर सिर पटका… माँ मुझे ताकत दे कि उसे उखाड़ सकूं, जब तक जिंदा रहेगा वह हरामी, जाने कितने मोहन दा मरते रहेंगे।’
‘मोहन दा, कौन मोहन दा?’ मैंने पूछना चाहा पर उसके तेज बहाव में मेरा प्रश्न तिनके सा बह गया।
‘सर जी, मेरी जनानी (पत्नी), उसने देखी थी मेरी छटपटाहट, मेरी बेचैनी। देखा था उसने मुझे, रात-रात कच्ची जमीन पर मुक्के मारते हुए।’ उसने कहा– आमि कि कोरते पारि (मैं क्या कर सकती हूँ)। मैंने इतना ही कहा, आमार पथ अवरुद्ध करो ना (मेरा रास्ता मत रोको)। वह देवी थी, हट गई मेरे रास्ते से पर अंत में उससे भी नहीं रहा गया, उसने कहा– लेकिन यह रास्ता तुम्हें बर्बाद कर डालेगा।
‘मैं घुटने टेककर बैठ गया और हाथ जोड़कर मैंने कहा– देवी, यदि जीवित रहा तो तुम्हारा ऋण फिर कभी चुका दूँगा पर उस शैतान को जब तक नहीं उखाड़ फेंकूंगा, सामान्य जीवन नहीं जी सकूंगा मैं। यूँ भी मैं जीवित कहाँ हूँ, मैं तो जीते-जी चिता पर चढ़ गया हूँ। विष पी-पीकर नीला हो चुका हूँ। जाने क्या पढ़ा उसने मेरी आँखों में कि ‘भालो थेको’ (खुश रहो) कहा उसने मुझे और कुछ दिनों के लिए अपने भाई के यहाँ चली गई। जाने से पहले वह मुझे जबरन कालीघाट ले गई। काली मंदिर में वह फूट-फूटकर रो पड़ी-माँ ओके सुस्थ करे दाओ, पाठा बलि दिबो। (माँ उसे ठीक कर दो, बकरे की बलि दूँगी)।’
एकाएक वह हिलग-हिलगकर रोने लगा। भीतर की जाने कितनी चट्टानों को फोड़कर निकला था वह आर्तनाद। शायद पत्नी की स्मृति से उत्पन्न बेचैनी, अवसाद और यंत्रणा इतनी बढ़ गई थी कि उसकी देह के चोले में अंट नहीं रही थी। वह बेड की कोर से माथा भिड़ा भिड़ाकर रोने लगा। ढुलकती आधी रात की निस्तब्धता में एक पूर्ण पुरुष का इस कदर बिलखना जिंदगी का कोई भी क्षण इससे ज्यादा भयावह और दिल दहला देने वाला नहीं हो सकता था।
सुबकते-सुबकते ही कहने लगा, ‘यदि लाख साल जी लूँ मैं और लाख जन्म ले लूँ तो भी उस देवी को भूल नहीं पाऊँगा मैं। मैं उसका कृष्ण नहीं बन पाया पर वह मेरी मीरा बनी रही। भाई के यहाँ जाकर उसने अपना गर्भपात करवा लिया पर मुझे भनक तक नहीं पड़ने दी… मुझे अपराधबोध से बचाने के लिए।’ और वह फिर रो पड़ा। जार-जार रोता रहा। मैं तूफान के गुजर जाने का इंतजार करने लगा पर मुझे अधिक इंतजार नहीं करना पड़ा। शीघ्र ही बाढ़ का पानी उतरा। वह सुस्थिर हुआ, लेकिन अब उसमें वह तेजी नहीं रह गई थी। शिथिलता छा गई थी उस पर। भारी गले से इस बार उसने सिर्फ इतना ही कहा, ‘आप ही बताइए, दुनिया को इतना खराब किसने बनाया कि चाहकर भी कोई यहाँ अच्छा नहीं रह सके।’
वह मेरी ओर देखने लगा। शायद उसे उम्मीद थी कि मैं चूंकि आंदोलनकारी हूँ, राजनीतिक कैदी हूँ, इस कारण मेरे पास उसके सवाल का जवाब होगा पर मैं क्या जवाब देता…खुद मेरी आँखों के सामने नंदीग्राम के मरते किसान, दीवारों पर लगे गोलियों के निशान, जमीन पर बहता खून, फायरिंग करती पुलिस, दौड़ते-भागते स्त्री-पुरुष, गोलियों की धांय-धांय… सब-कुछ आँखों के आगे तिर तिर तैरने लगा। जाने कितनी बार अपने से ही पूछा था मैंने दुनिया इतनी खराब क्यों है?
बहरहाल… हल्की नरम भोर होने लगी थी। आसमान के तारे ओझल हो चुके थे। कैदी नंबर चार सौ ग्यारह अपने बेड पर लौट चुका था। सुबह के घंटे के साथ ही हम सभी राजनीतिक कैदियों को हमारे रुतबे के अनुसार दूसरे कमरे दे दिए गए थे।
लेकिन ढलती रात के वे कुछ लम्हे जिसमें कैदी नंबर चार सौ ग्यारह ने आपबीती के कुछ बदरंग टुकड़े मेरे सामने रखे थे, वे जैसे मेरे वजूद से चिपक गए थे। रह-रहकर दिमाग में उसका सवाल हथौड़े चलाता, दुनिया को इतना खराब किसने बनाया और इस सवाल के साथ ही मन के सूने सपाट आसमान में डलिया फूल टंग जाता। प्रश्नों का चंदोवा तन जाता। कौन था यह? कौन था यह डलिया फूल? सिर्फ उसका मालिक? क्यों मारा उसे? उफ! यह दुनिया सचमुच कितनी भयावह होती जा रही है, जिसने एक मासूम और पवित्र आत्मा को हत्यारा बना डाला? एक पवित्र शुरुआत का ऐसा खूनी अंत? सवाल पर सवाल। चाहकर भी अपनी जिज्ञासाओं पर ढक्कन नहीं लगा पाया मैं। आखिर खतरा उठाकर भी पूछ लिया मैंने मिस्टर मंडल से। नहीं कोई भूमिका नहीं, सीधा ही मुद्दे पर आ गया था मैं।
‘मि. मंडल, मैं जानने को मरा जा रहा हूँ कि कैदी नंबर चार सौ ग्यारह ने अपने मालिक की हत्या क्यों की थी? वह तो एक मच्छर तक को नहीं मार सकता था।’
तुरंत सुलगी बोरसी से वे भभके।
‘तो एक ही रात में लपेट लिया उसने आपको भी! क्या बताऊँ, बड़ी बेचैन आत्मा है। अजीब कैरेक्टर। सिरफिरा। कभी गमले तोड़ता है तो कभी भाषण देना शुरू कर देता है। उस पर विशेष नजर रखनी पड़ती है।’
‘बहरहाल… किस्सा यह कि ‘हाई ग्रोथ’ की बीमारी ने उसके कॉटन मिल के मालिक को भी जकड़ लिया था। अच्छी-भली चल रही थी मिल पर मालिक अब मिल की जगह शानदार शॉपिंग मॉल बनाने का सपना देखने लगा था। टालीगंज साइड में जमीन के भाव आसमान को छू रहे थे। मालिक रातोंरात अरबपति बनने का सपना देखने लगा था। रास्ता भी साफ था, बस कुछ अड़चन थी तो कुछेक हजार मजदूरों की, जो किसी भी कीमत पर मिल को बंद नहीं होने देना चाहते थे। महँगाई बढ़ती जा रही थी और फैक्ट्री में काम करने की शिफ्ट लगातार कम होती जा रही थी। कहाँ चार-चार शिफ्ट में काम होता और कहाँ आधी शिफ्ट में काम होने लगा था। सारे कैजुअल वर्कर की छंटाई हो चुकी थी और जो परमानेंट वर्कर थे, उन्हें भी मालिक वी.आर.एस. लेने के लिए दबाव डाल रहा था। मालिक ने ट्रेड यूनियन के नेता मोहन दा को खरीदने की बहुत चेष्टा की पर वह अलग ही माटी का था। उसने चुनौती दी, मिल को जान-बूझकर घाटे में दिखाया जा रहा है, हमें मिल दो हम इसे फायदे में चलाकर दिखा देंगे। मालिकों ने एक बार उसे अकेले में बुलाया पर वहाँ भी उसने साफ कह दिया-जब तक हमारी साँस चलेगी, मिल चलेगी।’
‘…तो मालिक ने उसकी साँस ही रोक दी। मरवा डाला उसे। कहते हैं कि मिल के अंदर हो…। शिबू (कैंदी नंबर चार सौ ग्यारह) और मोहन दा लंगोटिया यार थे। शुरू में मजदूरों ने शिबू की अगुआई में मोहन दा की हत्या के विरुद्ध केस भी चलाया पर भारतीय कानून व्यवस्था में अपराध करना गुनाह नहीं, गुनाह था सबूत प्रमाण। प्रमाण कुछ भी नहीं जुटा पाए श्रमिक। पुलिस, कानून सब मालिक के खरीदे हुए। इस कारण मुकदमा फुस्स हो गया और मजदूर हार मान गए पर यह बंदा डटा रहा। मोहन दा की हत्या ने इसके भीतरी सर्किट को ही बदल डाला था। उसकी आँखें अंगारा बन गई थीं। उसने मालिक से बदला लेने के लिए शराब पीनी शुरू की। कई बार शराब में धुत्त होकर वह फैक्ट्री चला आता। उसे दो बार वार्निंग दी गई, फिर निकाल दिया गया।’
‘शुरू-शुरू में मिल मालिक को खटका था कि शिबू बदला ले सकता है, इस कारण वह इंडिया में बहुत कम रहता और रहता भी तो मिल बहुत कम आता। बस अंगरक्षकों से घिरे घर में फोन से ही सब-कुछ संचालित करता रहता पर जब शिबू शराब में धुत्त होकर कभी नाली के पास पड़ा मिलता तो कभी फैक्ट्री के गेट के पास तो धीरे-धीरे वह शिबू की तरफ से निश्चिंत होता गया। वह शराबी क्या बदला लेगा। शिबू के कपड़े बदबू मारते। कई बार इसकी पत्नी इसे उठवाकर घर ले जाती, इसे नहलाती, खाना खिलाती, इसके कपड़े बदलती पर शीघ्र ही वह फिर नाली में पड़ा मिलता। इसी प्रकार आठ-नौ महीने बीते… मालिक जब पूरी तरह इसकी तरफ से निश्चिंत हो गया तो फिर उसने अपनी स्वाभाविक रूटीन शुरू कर दी। घर से बाहर निकलने लगा। धीरे-धीरे उसने मॉर्निंग वॉक भी शुरू कर दी। बस इसी अवसर की ताक में था शिबू, क्योंकि तब वह प्रायः अकेला ही रहता था। एक सुबह जैसे ही मालिक गाड़ी से उतरा, शिबू छुप-छुपकर पीछा करता रहा और मौका देख एक भारी-भरकम पत्थर इसने पूरे वेग से मालिक के माथे पर दे मारा। निशाना अचूक निकला, मालिक के माथे की नस फट गई, वह वहीं ढेर हो गया।’
कहानी सुनाकर मि. मंडल चुप हो गए थे। अभिजीत ने दाद देते हुए कहा, ‘तो यह लड़ाई भी बिल्ली-चूहे की ही निकली पर जो कहो यार है दमदार। जैसे भी हो इस चुप्पे समय में भी इसने बिल्ली की टांग तो तोड़ी। हम तो सिर्फ ‘शालीन’ गिरफ्तारियाँ ही देकर रह गए।’
अगले डेढ़ दिन बाद हम सबको छोड़ दिया गया, लेकिन उन डेढ़ दिनों में ही जाने कितनी पृथ्वियाँ और आसमानों को पार कर चुका था मैं। जाने कितनी बार काटा और छीला जा चुका था मैं। चलाचली की वेला में मि. मंडल से इजाजत लेकर फिर मिला मैं शिबू से। शांत था वह उन क्षणों। अपनी आंतरिक निजता में कैद। कुछ भी नहीं था उसमें। न सुख, न दुःख, न आवेग, न गति, न स्वप्न, न आकांक्षा। मुझे लगा, यही उपयुक्त समय है मेरे आखिरी सवाल का। पूछा मैंने, ‘जेल से छूटकर क्या करोगे शिबू दा?’
वह चौंका, शिबू दा सुनकर। उसकी आँखें नम हुईं, पानी में भीगे खेत सी। चेहरे पर उदासी के बादल लहराए। अपने में खोया-खोया, डूबती आवाज में कहा उसने, ‘श्यामली तो चली गई, वह रहती तो उसका ऋण उत्तारता। इस निष्प्राण काया की अब तो एक ही साध बची है। उन मालियों को उखाड़ फेंकना, जो सींचते हैं ऐसे डलिया फूलों को।’
मैं चौंका। इस ठंडी भुस्स माटी में इतनी ज्वाला?
मैं पूछना चाहता था, पत्नी कैसे गुजरी? क्या अंतिम समय वह था पत्नी के पास कि तभी मेरी नजर उसकी आँखों की तरफ उठी। कौड़ी की तरह बाहर निकली उसकी आँखों में मुझे वैसे ही नुकीले हथियार और दहकते अंगारे दिखे जैसे देखे थे मैंने नंदीग्राम के चूहों की आँखों में।