प्रेम-वृक्ष

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इस मौसम में
जब कि सावनी फुहार लगना चाहिए
तीखी खिली धूप में भी
मैं याद करता हूँ तुम्हें
कि उन दिनों
कैसे हम बचकर चलते थे
बरसाती पानी की छपाक से
और यह जानते हुए भी
कि नहीं रुकेगी एक बूंद भी
तुम्हारे दुपट्टे से
फिर भी अच्छा लगता था
एक साथ ओढ़ना।
अब, जबकि
सफेद हो गए हैं कनपट्टी के बाल
चढ़ गया है आँखों पर
दूर दृष्टि दोष का चश्मा
कई छिद्र करवाने पड़े हैं
बेल्ट के अंतिम छोर की ओर
और एक लंबी साँस के साथ
रुकना पड़ता है चार कदम ही चलकर
अब भी अच्छा लगता है
एक जोड़े का चलना
बरसाती पानी की छपाक से बचकर
अब सिद्धांतों से दूर
व्यवहारिकता की धरातल पर भी
सुदृढ़ लगते हैं
छायादार प्रेम-वृक्ष
बस इन्हें तर करते रहना होगा
हर युग, हर कालखंड में।
– केशव मोहन पाण्डेय

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