चारों ओर चलत हौ कच कच
का टटका का बासी।
आईं, सुनी कथा कैलासी॥
उखमज्जल नेतन के चउवा
मंहगइयो के पसरल पउवाँ
पलायन के मुँह झोकारीं
बेढ़ ले गइल सगरी गउवाँ।
झंखत मिलें महातिम खातिर
का काबा का कासी।
आईं, सुनीं कथा कैलासी॥
ठोकर मरलेस अस समइया
अलगा भइलें आपन भइया
पेट के गड़हा पाटीं कइसे
मजधार में डूबत नइया।
डाहै सझइता, मारै अवांढ़
ना खासीं न उबासी।
आईं, सुनीं कथा कैलासी॥
नीक समइया कहाँ सोहाता
अकनत अकनत बीतल जाता
खाली पेट खेतिहर लउकें
मजूरवन के सिरे बिसाता ।
तरसत लउकें अपनन खातिर
ई दासी उ बिलासी।
आईं, सुनीं कथा कैलासी॥
मउज मनावै अफसर नेता
उनुका सभै चढ़ावा देता
जनता बिलखे रोजी खाति
नवहा भर दिन फाँकै रेता ।
सहकार सहजोग के बतिया
भइल अब सत्यानासी।
आईं, सुनीं कथा कैलासी॥
- जयशंकर प्रसाद द्विवेदी