होना जेआरएफ का

ना! ना! ऐसा बिल्कुल नहीं था कि भैयाजी चिरकुट थे। अलबत्ता वह तो इतने तेजस्वी थे कि जहाँ लोग एम ए हिंदी में 55 प्रतिशत के लिए झँखते थे, वहाँ उन्होंने 60 प्रतिशत उठाया था। यकीन मानिए तब यह 60 प्रतिशत 80 से कम न होता था क्योंकि उनके समय एक प्रोफेसर अपने अधिकतम 50 अंकों में से 18-20 से ऊपर किसी को नहीं देते थे। इसकी वजह थी कि उनके किसी झक्की गुरु ने उस पेपर में उनको इसी के आसपास नम्बर दिया था। सो, भैयाजी विभाग में साठ फीसदी वाले तेजस्वी थे। सोशल कितने थे यह मालूम नहीं पर होस्टल में रहने की वजह से जबरिया सोशल होना पड़ता था। इसी बीच रेडियो-बाजे जैसे किसी विषय पर शोध वाला काम कर बैठे सो एक बड़े नामचीन आलोचक का नाम अपनी तरफ से जोड़कर हिंदी समाज को बताने लगे कि अमुक ने मेरा नाम लेकर ऐसा कहा कि उस यूनिवर्सिटी में ऐसे ही विषयों पर काम होगा अब।’- भैयाजी के ही किसी नजदीकी मित्र ने उस नामचीन से एक रोज पूछ डाला कि अमुक का स्टूडेंट अमुक विषय पर, आपने कुछ कहा क्या?- नामचीन बबवा चिलम खींचकर बनारसी वाला देते हुए बोला – “अब कुकुरो बिलार पर हम बोलत रहब का? हद बा। –

तो खैर किस्सा भैयाजी का। भैया जी तेजस्वी थे, ओजस्वी वक्ता, लेखन ऐसा की जी चाहता हाथ चूम लें। वाकई, और अगर इस बात में तनिक भी खोट निकले तो गंगा माई की सौगंध जो कहो सो हार जाएं।

भैयाजी पढ़ने, बोलने, तर्क में किसी का भी कान काट ले। पर हॉस्टल के सुरक्षित कमरे में बैठकर हिंदी को, हिंदी वालों को, कूबत भर गरियाने वाले भैयाजी अपने हिंदी में उत्तरआधुनिक गुरु के नजरों में समा जाने के लिए वह सब करते, जो एक पारंपरिक शिष्य निष्ठापूर्वक करता होगा। लेकिन वह थोड़ा अलग थे। वह ‘खास’ थे। वह विभागीय व्याख्यानों की कैसेट्स रिकॉर्ड करके उसको अपने खर्चे से खरीदे गए कागज़ पर, पार्कर वाली स्याही से बढ़िया किस्म की ब्लैक कॉफी के दर्जन भर मग पियायी और आँखें फोड़ने के बाद हॉस्टल से निकल कर गुरु को यह तीनेक दिन रात का अद्भुत हासिल छुपाए हुए दिखाने यूँ जाते जैसे कभी वह वैज्ञानिक भागा होगा यूरेका यूरेका करता हुआ।

गुरु जी भी चंट थे भैया जी से सभी कागज और कैसेट्स लेकर मीठी बात कर, स्वास्थ्य आदि पूछकर भेज देते। भैया खुश हो जाते एकदम गच्च। इतने गच्च कि आप कहें हडसन लेन चलें सर? वह खुशी खुशी जाते और जो चाहे खिलाते।

वह कहते हैं न जलालुद्दीन मोहम्मद अकबर को ख़ुदा ने हजार नेमतें अता की थीं पर वह साहिबे औलाद न हुआ। इसके लिए उसने देवी देवताओं, पीर फ़क़ीर, मौलवियों के दरवाजे पर सर पटका तब कहीं जाकर जनाब सलीम चिश्ती के करम से सलीम मिला। ठीक वैसे ही भैयाजी का सब ठीक था पर नॉन नेट फेलोशिप से गुजरती जिंदगी एक दिन पाँच सर्दियाँ और चार गर्मियों में घसीटने के बाद जेआरएफ हो गई। भैया जी जेआरएफ जिंदगी हुए।

उस सदी में और लोग भी थे पर भैया जी ने सबको बिना नागा हर मुद्दे के बीच ऐसा रोजनामचा दर्ज किया कि विभाग के कमजोर दिल वाले उनको देख आजू बाजू सरक लेते थे। उनसे घबराकर नहीं बल्कि उनके जेआरएफ महिमा पुरान को सुनकर वह अपने कानों में मवाद भरना नहीं चाहते थे। हॉस्टल में भैया नए टॉवल में दिखते कोई पूछ देता – अरे भैयाजी,नया तौलिया? – भैया रुककर मुस्कुराते और फिर पूछने वाले की शामत – “जेआरएफ है गुरु तुम भी निकालो और चांदी काटो। ऐसे थोड़े है, घिसे हैं।”- पूछने वाला भी सोचता नाहक ही पूछ बैठा।

भैयाजी अपने हॉस्टल जूनियरों को किसी रेस्तरां में ले जाते मतलब रेस्तरां भैयाजी जैसा ही होता, वहाँ कोई शुक्रिया कह देता तो भैया जी कहते “जेआरएफ है दोस्त इसलिए तो इतना कर देता हूँ। जानते हो घिसा है इसके लिए।”- शुक्रिया कहने वाला अपच, सरदर्द, बवासीर जैसे कचहरिया बीमारियों की जद में आ जाता। अब सब भैयाजी को उनके हालातों में स्वीकार चुके थे। और उनका “घिसा” है शब्द भी उनके मुख से निकल निकल कर घिस चुका था।

इसी बीच नई खेप में कुछ अलग किस्म के छात्रो दल आया था। उनमें एक थे रुप्पन बाबू। दिन भर कॉमन रूम में फ़िल्म देखना, इश्क लड़ाना, शाम को क्रिकेट खेलना, डिनर के बाद टीटी खेलना और गाहे-बगाहे ‘वृद्ध भिक्षु’ के कुछ प्याले गटककर सो जाना ही उनकी दिनचर्या में था। रुप्पन, भैयाजी के विभागीय ही नहीं उनके ही हॉस्टल के थे। तो जो चीज़ भैयाजी ‘घिसट घिसट’ के पाए थे, वह रुप्पनवा ऐसे ही ले बैठा। और यह खबर देने वह दौड़कर भैया जी के पास पहुँचा। भैया जी हमेशा की तरह सिंसियर तरीक़े से कमरे में अंधेरा कर लैंप जलाकर पढ़ या शायद कैसेट ट्रांसक्राइब कर रहे थे। वह क्रिकेट खेल कर सीधे रिजल्ट बताने भैया जी के पास पहुँचा था – “भैया जी, जेआरएफ हो गया।”- कसम से भैया जी का मुखमंडल खुशी से दैदीप्य हो उठा और तुरंत म्युनिस्पैलिटी के खंभे पर टंगे बल्ब की तरह भूक-भुकाकर बंद हो गया। भैया जी देवदास के दिलीप कुमार हो गए और रुप्पन खुद को चंद्रमुखी समझने लगा, हॉस्टल का वह कमरा ठीक इसी समय चंद्रमुखी का कोठा हो गया। रुप्पन समझ न पाए हुआ क्या। तभी भैया जी कि आवाज किसी पाइप के दूसरे सिरे से आती सुनाई दी -”

बधाई

हो मित्र,

बधाई

हो। अब सबका हो जाता है, हमारे समय यह बेहद टफ होता था। अब तो इसका सिलेबस काफी हल्का आ गया है …”- रुप्पन गेट पर खड़े सुनता रहा और भैया बोलते रहे, रुप्पन इस डाटा पर आश्चर्य में था क्योंकि यूजीसी ने बीते कई सालों से उस सिलेबस का ‘क’ भी न बदला था। लेकिन यह भी उतना ही सच था कि भैयाजी ने खुद से कॉफी बनाई, जी वही ब्लैक कॉफी और रुप्पन को पिलाई। उनकी कॉफी बनाने और पिलाने के बीच की कक्षा के बीच भैयाजी ने रुप्पन को यह बता दिया था कि चूंकि वह अब जेआरएफ है, अतः खास है। वह अब सामान्य हिंदी वाला नहीं। रुप्पन को भी लग रहा था कि वह अब हजार की भीड़ में से अकेला मुरब्बा हुआ है बाकी सब अभी आंवला ही रह गए हैं। उधर भैयाजी दीक्षित कर रहे थे – “तो तुमको चाहिए कि अब अपनी क्लास को समझो।भैया जी जैसे सीनियरयों के साथ ही बतियाओ, उन्हीं के संग उठो, बैठो।”- इस पूरी बातचीत में भैया जी ने यह बताना बिल्कुल नहीं छोड़ा कि यूजीसी का सिलेबस हल्का हो गया है। पहले जेआरफ पाँच से छः दर्जन होते थे, अब साढे चार सौ जेआरएफ होने लगे हैं। शिक्षा का स्तर गिरने लगा है। कॉपियाँ ठीक से नहीं जांची जा रही। रुप्पन ने कॉफी गटका और बाहर भाग चला। उसका मन यूजीसी को गरियाने या कॉपी ठीक से नहीं जाँचने से परे था।

रात को रुप्पन ने अपने खास सोलह-सत्रह दोस्तों के साथ भैया जी को भी डिनर पर आमंत्रित किया। तय हुआ कि आंध्र भवन जाकर डिनर करेंगे। भैया जी भी खुशी-खुशी तैयार हो साथ हुए। सब जेआरएफ की पार्टी में आंध्रा थाली खा रहे थे और उधर भैया जी इसी बीच आंध्रा भवन की टेबल पर सबके सामने यूजीसी की अकर्मण्यता, खराब सिलेबस, कॉपी जांचने वाले शिक्षकों की कर्तव्यहीनता और उनकी कमबुद्धि के साथ ही अकादमिक जगत का अँधकार में डूबता भविष्य इन सब पर बड़ा प्रश्नवाचक चिन्ह लगा चुके थे।

कहने का तात्पर्य यह कि भैयाजी ने पाँच मौसम सर्दी, चार मौसम गर्मी में ‘घिसने’ के बाद अपनी तमाम तेजस्विता, वाकपटुता, अध्ययनशीलता के साथ जिस जेआरएफ को प्राप्त किया था। वह इतनी जल्दी, इतनी सहजता से रुप्पनवा को कैसे मिल गई। इसकी वजह उनके पुराने हॉस्टल वाले सीनियर ठाकुर साहेब ने बताई थी – “रे छौड़ा, भैयाजिउवा का लोड न लेना उसको बबासीर है, उसी का दर्द रह रहकर उपट जाता है।”- रुप्पन इसे गांठ बांध चुका था और दर्द उठने की गति से वह इस निष्कर्ष पर आ चुका था कि ठाकुरजी सही बोले थे। लेकिन यह भी ज्ञात सत्य है कि रुप्पन भैयाजी के मंत्र को गांठ बांध अपने को सुरेंद्र वर्मा की नायिका सिलबिल सरीखा मंडी हाउस में चिल्ला-चिल्लाकर सबको बता देना चाहता था कि वह अब ‘जेआरएफ’ है। वह ‘जेआरएफ’ धारी हो गया है। आख़िर कुछ भी हो भैयाजी ने जी यह मंत्र दिया था। अब भाड़ में जाए यूजीसी का खराब सिलेबस, अलां-फलां। पर इस घटना के बाद हॉस्टल वालों ने भैयाजी से फिर कभी ‘जेआरएफ चालीसा’ न सुना। जो ‘घिसकर’ पाया था, वह सब घिसकर खत्म जो हो गया था।

  • डॉ मुन्ना कुमार पाण्डेय

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