‘ऐसा क्यों’ आत्ममंथन की प्रेरक दस्तक – रितू मोहन ‘ऐसा क्यों’ डॉ कृष्ण कुमार पांडेय का एक ऐसा लघु-लेख संग्रह है, जो केवल प्रश्न नहीं उठाता, बल्कि उन प्रश्नों की जड़ों में जाकर हमें आत्ममंथन के लिए विवश करता है। यह कृति किसी दार्शनिक वाद या केवल विचारों की गूंज नहीं है, बल्कि वह संवेदनशील और सजग लेखनी है जो समाज, संस्कृति, धर्म, परंपरा, नैतिकता और मनुष्यता को लेकर गंभीर चिंतन प्रस्तुत करती है। लेखक ने व्यक्तिगत अनुभवों, ऐतिहासिक दृष्टांतों, शास्त्रीय प्रमाणों और सामाजिक यथार्थों को आधार बनाकर छोटे-छोटे…
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अंधे पीसें, कुत्ते खाएँ
सदियों से अंधे पीस रहे हैं, कुत्ते खा रहे हैं। इतना पीस रहे हैं और इतना खा रहे हैं कि मुहावरा बन गया। अपने देश में किसी के सामने प्रश्न है कि क्या खाएँ तो किसी के सामने कि क्या-क्या खाएँ? वैसे खाने का पर्याय रोटी है, जिसके लिए आटा जरूरी है। पहले अनाज पीसकर आटा बनाया जाता था, आज कुछ भी पीसकर आटा बनाया जा रहा है। अनाज की रोटी उतनी स्वास्थ्यवर्धक नहीं है, जितनी ‘कुछ भी’ की। लिहाजा प्रयास है कि कुछ भी पीस दिया जाए। पिसाई…
Read Moreमोथा आ मूंज के जिद आ धार के गजल
भोजपुरी के कवि शशि प्रेमदेव के दूगो गजल भोजपुरी के पत्रिका ‘पाती’ के अलग अलग अंक में जब पढ़लीं त ई महसूस भइल कि एह कवि के ठीक से पढ़े के चाहीं। ई कवि आज के समय के कटु सत्य के अपना गीत- गजल के विषय बना रहल बा। ऊ समय के सांच के कहे में नइखे हिचकत। सांच कहल आज कतना कठिन भ गइल बा, ई हमनी के बूझ- समुझ रहल बानी जा। हमनी के जाने के चाहीं कि हर थाना में चकुदार (चौकीदार) होलें। उनकर काम रहत रहे…
Read Moreहोना जेआरएफ का
ना! ना! ऐसा बिल्कुल नहीं था कि भैयाजी चिरकुट थे। अलबत्ता वह तो इतने तेजस्वी थे कि जहाँ लोग एम ए हिंदी में 55 प्रतिशत के लिए झँखते थे, वहाँ उन्होंने 60 प्रतिशत उठाया था। यकीन मानिए तब यह 60 प्रतिशत 80 से कम न होता था क्योंकि उनके समय एक प्रोफेसर अपने अधिकतम 50 अंकों में से 18-20 से ऊपर किसी को नहीं देते थे। इसकी वजह थी कि उनके किसी झक्की गुरु ने उस पेपर में उनको इसी के आसपास नम्बर दिया था। सो, भैयाजी विभाग में साठ…
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