काव्य-चेतना में स्त्री की आत्मगाथा : ‘संग तुम्हारे’

         – जे पी द्विवेदी जीवन कोई पूर्व निर्धारित रेखा नहीं है जिसे तय कर लेना ही उसकी संपूर्णता हो, बल्कि वह अनुभवों का एक विस्तार है, जो मनुष्य के भीतर गहराइयों तक उतरता है। यह यात्रा तभी सार्थक बनती है जब उसमें व्यक्ति का अंतर्मन पूर्णतः जुड़ता है। अध्यापिका-कवयित्री तरुणा पुण्डीर ‘तरुनिल’ का काव्य इसी जीवन-यात्रा का एक भाव-प्रधान दस्तावेज़ है, जो उनके आत्मबोध और समष्टिगत चेतना से उपजा है। उनका हालिया कविता संग्रह ‘संग तुम्हारे’ इस यात्रा का जीवंत प्रमाण है। ‘संग तुम्हारे’ संग्रह की…

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बेहतरीन ग़ज़लों का ग़ुलदस्ता ‘ग़ज़ल में आपबीती’

                                                                                                                                                    पुस्तक समीक्षा   – बिंदिया रैना तिक्कू   मुनव्वर राना की शायरी का परिचय कराना सूरज को…

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‘ऐसा क्यों’ आत्ममंथन की प्रेरक दस्तक

‘ऐसा क्यों’ आत्ममंथन की प्रेरक दस्तक    – रितू मोहन ‘ऐसा क्यों’ डॉ कृष्ण कुमार पांडेय का एक ऐसा लघु-लेख संग्रह है, जो केवल प्रश्न नहीं उठाता, बल्कि उन प्रश्नों की जड़ों में जाकर हमें आत्ममंथन के लिए विवश करता है। यह कृति किसी दार्शनिक वाद या केवल विचारों की गूंज नहीं है, बल्कि वह संवेदनशील और सजग लेखनी है जो समाज, संस्कृति, धर्म, परंपरा, नैतिकता और मनुष्यता को लेकर गंभीर चिंतन प्रस्तुत करती है। लेखक ने व्यक्तिगत अनुभवों, ऐतिहासिक दृष्टांतों, शास्त्रीय प्रमाणों और सामाजिक यथार्थों को आधार बनाकर छोटे-छोटे…

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कैसे भूलूँ तेरा प्यार?

कैसे भूलूँ तेरा प्यार? असहज मन को सहज करे तू गढ़ के बारम्बार!! कैसे भूलूँ तेरा प्यार? उत्सव-पर्व का चाह न कोई, अब नूतन उत्साह न कोई, चाह रहा मन बार-बार अब तेरा ही अभिसार!! भटक रहा था तृषित हरिण मन, जयश्री-हीन व्यथित यह जीवन, शून्य हृदय की नव-कलिका तुम खिली हुई कचनार!! दिखे डगर न खुले पलक से, खिल जाता मन एक झलक से, तमस क्षेत्र मैं अखिल धरा का, तुम उज्ज्वल संसार!! कर्म राह में हार का राही, बन सका ना सफल सिपाही, विपद-ग्रन्थ का सकल पृष्ठ मैं,…

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केशव मोहन पाण्डेय की चार कविता

मेरी कविता-1  ** अगर कविता नहीं होती तो बिखर गया होता अनगिनत बार तिनका-तिनका, जैसे बिखरता है घोसला छोटे पेड़ों से आँधी आने के बाद। अगर कविता नहीं होती तो बह गया होता मैं जाने कब का विजन-वन-अलक्ष्य में कहीं, जैसे बहती है मिट्टी बाढ़ में बार बार। अगर कविता नहीं होती तो झड़ गया होता पीत-पर्ण की तरह रोज के पतझड़ में मैं कब का। कविता ऑक्सीजन है मेरे लिए मेरी हरीतिमा का कारण भी, बाँध है शील की शालीनता की समय के बाढ़ से बचाव की, जड़ है…

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नंदीग्राम के चूहे

• मधु कांकरिया फूल को बिखरा देने वाली हवा कौन कहता है चलनी नहीं चाहिए। समूचा जगत जला देने वाली आग कौन कहता है लगनी नहीं चाहिए। – भगवान प्रसाद मिश्र एक अजीब उदास शाम थी वह। अंधेरा आगे था, शाम पीछे। पांव आगे थे, मन पीछे। पहली मर्तबा उस शाम जिंदगी को और अपने होने को शिद्दत से महसूसा मैंने। अहसास की नर्म माटी के साथ ही साथ कंकड़-पत्थर भी झेले। ‘जेल’ शायद पहली बार उस शाम मन में बसे इतिहास से निकलकर मेरे वजूद से जा चिपका। मेरी…

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ओम निश्चल की छह ग़ज़लें

1 वक़्त अच्छा या बुरा है ये गुज़र जायेगा जाते जाते ही मगर दिल भी बिखर जायेगा उससे दीदार का वादा जो नहीं निभ पाया उससे मिलने का मुहूरत ही गुज़र जाएगा दोस्तों सर से अगर पानी नहीं उतरा तो ज़िन्दगी जीने का उल्लास ही मर जाएगा हमने ऐसे कभी हालात नहीं देखे थे घर का जब मुखिया ही हालात से डर जायेगा लग गई आग, बुझाने की मगर कौन कहे देख करके भी बगल से वो गुज़र जाएगा इंतख़ाबात के दिन जब भी कभी आएँगे हाथ फैलाए वो गलियों…

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अंधे पीसें, कुत्ते खाएँ

  सदियों से अंधे पीस रहे हैं, कुत्ते खा रहे हैं। इतना पीस रहे हैं और इतना खा रहे हैं कि मुहावरा बन गया। अपने देश में किसी के सामने प्रश्न है कि क्या खाएँ तो किसी के सामने कि क्या-क्या खाएँ? वैसे खाने का पर्याय रोटी है, जिसके लिए आटा जरूरी है। पहले अनाज पीसकर आटा बनाया जाता था, आज कुछ भी पीसकर आटा बनाया जा रहा है। अनाज की रोटी उतनी स्वास्थ्यवर्धक नहीं है, जितनी ‘कुछ भी’ की। लिहाजा प्रयास है कि कुछ भी पीस दिया जाए। पिसाई…

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कला

वेदों की ऋचाओं में मैं पुराणों की कथाओं में मैं शास्त्रों के श्लोकों में मैं रामायण की चौपाईयों में मैं दोहों में मैं भगवद गीत के उपदेशों में मैं इतिहास की गाथाओं में मैं नाद है मेरी सृष्टि करती मैं जीवन वृष्टि विभिन्न कालों की संस्कृति में लिपटी रंगो में मैं हूँ दिखती भावों से मेरी उत्पत्ति रसों की मुझसे निष्पत्ति सृष्टि का मैं शृंगार शिल्प, चित्र, गीत, संगीत, नृत्य, नाट्य मेरे उपहार त्यौहारों का पहनती हार परम्पराएँ वक्षस्थल पर झूलती सभ्यता की इन्द्रधनुषी ओढ़नी ओढ़ती भारत भूमि मेरा बिछावना…

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मुनक्का मौर्या ‘मृदुल’ की कविताओं में जीवन की झलक

अपनी बहन, मुनक्का मौर्य ‘मृदुल’, के काव्य संग्रह पर आलेख लिखना मेरे लिए एक व्यक्तिगत और भावनात्मक अनुभव है। मुनक्का जी के साहित्यिक सफर का गवाह बनना और उनकी रचनाओं की गहराई को समझना, मेरे लिए एक अनमोल अनुभव रहा है। उन्होंने जिस तरह से अपने जीवन के अनुभवों और समाज की वास्तविकताओं को कविताओं के माध्यम से व्यक्त किया है, वह प्रशंसनीय है। कविता उनके लिए केवल एक माध्यम नहीं है, बल्कि यह उनके जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। अपने दिन-प्रतिदिन के घरेलू कामों के बीच भी, उनके…

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