• मधु कांकरिया फूल को बिखरा देने वाली हवा कौन कहता है चलनी नहीं चाहिए। समूचा जगत जला देने वाली आग कौन कहता है लगनी नहीं चाहिए। – भगवान प्रसाद मिश्र एक अजीब उदास शाम थी वह। अंधेरा आगे था, शाम पीछे। पांव आगे थे, मन पीछे। पहली मर्तबा उस शाम जिंदगी को और अपने होने को शिद्दत से महसूसा मैंने। अहसास की नर्म माटी के साथ ही साथ कंकड़-पत्थर भी झेले। ‘जेल’ शायद पहली बार उस शाम मन में बसे इतिहास से निकलकर मेरे वजूद से जा चिपका। मेरी…
Read MoreDay: April 25, 2025
ओम निश्चल की छह ग़ज़लें
1 वक़्त अच्छा या बुरा है ये गुज़र जायेगा जाते जाते ही मगर दिल भी बिखर जायेगा उससे दीदार का वादा जो नहीं निभ पाया उससे मिलने का मुहूरत ही गुज़र जाएगा दोस्तों सर से अगर पानी नहीं उतरा तो ज़िन्दगी जीने का उल्लास ही मर जाएगा हमने ऐसे कभी हालात नहीं देखे थे घर का जब मुखिया ही हालात से डर जायेगा लग गई आग, बुझाने की मगर कौन कहे देख करके भी बगल से वो गुज़र जाएगा इंतख़ाबात के दिन जब भी कभी आएँगे हाथ फैलाए वो गलियों…
Read Moreअंधे पीसें, कुत्ते खाएँ
सदियों से अंधे पीस रहे हैं, कुत्ते खा रहे हैं। इतना पीस रहे हैं और इतना खा रहे हैं कि मुहावरा बन गया। अपने देश में किसी के सामने प्रश्न है कि क्या खाएँ तो किसी के सामने कि क्या-क्या खाएँ? वैसे खाने का पर्याय रोटी है, जिसके लिए आटा जरूरी है। पहले अनाज पीसकर आटा बनाया जाता था, आज कुछ भी पीसकर आटा बनाया जा रहा है। अनाज की रोटी उतनी स्वास्थ्यवर्धक नहीं है, जितनी ‘कुछ भी’ की। लिहाजा प्रयास है कि कुछ भी पीस दिया जाए। पिसाई…
Read Moreकला
वेदों की ऋचाओं में मैं पुराणों की कथाओं में मैं शास्त्रों के श्लोकों में मैं रामायण की चौपाईयों में मैं दोहों में मैं भगवद गीत के उपदेशों में मैं इतिहास की गाथाओं में मैं नाद है मेरी सृष्टि करती मैं जीवन वृष्टि विभिन्न कालों की संस्कृति में लिपटी रंगो में मैं हूँ दिखती भावों से मेरी उत्पत्ति रसों की मुझसे निष्पत्ति सृष्टि का मैं शृंगार शिल्प, चित्र, गीत, संगीत, नृत्य, नाट्य मेरे उपहार त्यौहारों का पहनती हार परम्पराएँ वक्षस्थल पर झूलती सभ्यता की इन्द्रधनुषी ओढ़नी ओढ़ती भारत भूमि मेरा बिछावना…
Read Moreमुनक्का मौर्या ‘मृदुल’ की कविताओं में जीवन की झलक
अपनी बहन, मुनक्का मौर्य ‘मृदुल’, के काव्य संग्रह पर आलेख लिखना मेरे लिए एक व्यक्तिगत और भावनात्मक अनुभव है। मुनक्का जी के साहित्यिक सफर का गवाह बनना और उनकी रचनाओं की गहराई को समझना, मेरे लिए एक अनमोल अनुभव रहा है। उन्होंने जिस तरह से अपने जीवन के अनुभवों और समाज की वास्तविकताओं को कविताओं के माध्यम से व्यक्त किया है, वह प्रशंसनीय है। कविता उनके लिए केवल एक माध्यम नहीं है, बल्कि यह उनके जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। अपने दिन-प्रतिदिन के घरेलू कामों के बीच भी, उनके…
Read Moreस्त्रियाँ
पढ़ा गया हमको जैसे पढ़ा जाता है काग़ज़ बच्चों की फटी कॉपियों का चनाजोर गरम के लिफ़ाफ़े बनाने के पहले! देखा गया हमको जैसे कि कुफ्त हो उनींदे देखी जाती है कलाई घड़ी अलस्सुबह अलार्म बजने के बाद! सुना गया हमको यों ही उड़ते मन से जैसे सुने जाते हैं फिल्मी गाने सस्ते कैसेटों पर ठसाठस्स ठूँसी हुई बस में! भोगा गया हमको बहुत दूर के रिश्तेदारों के दुःख की तरह! एक दिन हमने कहा हम भी इंसान हैं– हमें क़ायदे से पढ़ो एक-एक अक्षर…
Read Moreकविता में अलग बोल-वैशिष्ट्य
अनामिका का कविता संसार समकालीन कविता परिदृश्य में अनामिका का बीते चार दशकों से हस्तक्षेप रहा है तथा अब तक उनके कई कविता संग्रह आ चुके हैं। हाल के वर्षों में वे स्त्री विमर्श की एक प्रमुख हस्ताक्षर भी रही हैं। जिस संग्रह ‘टोकरी में दिगन्त: थेरी गाथा 2014’ पर उन्हें यह पुरस्कार देने का निर्णय लिया गया है, वह बुद्धकाल की थेरियों के बहाने स्त्री प्रजाति की पीड़ा और मुक्ति का आख्यान है। अकादेमी पुरस्कार के इतिहास में कविता में पहली बार किसी स्त्री को पुरस्कृत किये जाने को…
Read Moreyou
I have seen you in many forms… a beloved one, as wife, as a daughter, and very often as a friend. In every form you have been a path finder, very encouraging, loving and caring. In the fabulous mansion of the city, a marriage was going to take place. The atmosphere was full of gaiety and cheers. The entire mansion was lit up with lights and decorated with flowers. The soothing Shahnai (Clarinet) music was floating and had added to the charm of the function. And this was to happen.…
Read Moreलीक से हटकर
समालोचना एक गंभीर कर्म है- ‘रचना’ को खोलना, समझना और पाठक श्रोता के माध्यम से जन-मानस तक पहुँचाना। एक गंभीर विधा की गंभीरता को नेपथ्य में रखते हुए एक हँसती, खिल-खिलाती, चुलबुली शैली में संस्मरण को क्या कहेंगे आप? आप जो भी कहना चाहें, कहें। हिमालय की तराई के एक गाँव में किसान पिता के पसीने से भीगे, खूँटी पर टंगे कुर्त्ते की गंध से श्रम के प्रति पूज्य भाव और श्रमजीवी के प्रति सहज मैत्री को आजीवन निभाने वाले विश्वनाथ त्रिपाठी कई बदलाव करते हैं। किसी विधा में श्रेष्ठ…
Read Moreकथा कैलासी
चारों ओर चलत हौ कच कच का टटका का बासी। आईं, सुनी कथा कैलासी॥ उखमज्जल नेतन के चउवा मंहगइयो के पसरल पउवाँ पलायन के मुँह झोकारीं बेढ़ ले गइल सगरी गउवाँ। झंखत मिलें महातिम खातिर का काबा का कासी। आईं, सुनीं कथा कैलासी॥ ठोकर मरलेस अस समइया अलगा भइलें आपन भइया पेट के गड़हा पाटीं कइसे मजधार में डूबत नइया। डाहै सझइता, मारै अवांढ़ ना खासीं न उबासी। आईं, सुनीं कथा कैलासी॥ नीक समइया कहाँ सोहाता अकनत अकनत बीतल जाता खाली पेट खेतिहर लउकें मजूरवन के सिरे बिसाता । तरसत…
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