– जे पी द्विवेदी
जीवन कोई पूर्व निर्धारित रेखा नहीं है जिसे तय कर लेना ही उसकी संपूर्णता हो, बल्कि वह अनुभवों का एक विस्तार है, जो मनुष्य के भीतर गहराइयों तक उतरता है। यह यात्रा तभी सार्थक बनती है जब उसमें व्यक्ति का अंतर्मन पूर्णतः जुड़ता है। अध्यापिका-कवयित्री तरुणा पुण्डीर ‘तरुनिल’ का काव्य इसी जीवन-यात्रा का एक भाव-प्रधान दस्तावेज़ है, जो उनके आत्मबोध और समष्टिगत चेतना से उपजा है। उनका हालिया कविता संग्रह ‘संग तुम्हारे’ इस यात्रा का जीवंत प्रमाण है।
‘संग तुम्हारे’ संग्रह की कविताएँ केवल कोमल भावनाओं की अभिव्यक्ति नहीं हैं, बल्कि वे जीवन के विभिन्न स्तरों पर स्त्री के अनुभव, संघर्ष, प्रेम, आघात और उसकी पुनःस्थापना का गहन पाठ रचती हैं। कवयित्री की दृष्टि एक ऐसी स्त्री की दृष्टि है जो केवल देखने का कार्य नहीं करती, बल्कि उसे अनुभूतियों की अग्नि में तपाकर प्रस्तुत करती है। तरुणा की कविताओं में ‘स्व’ की खोज एक केंद्रीय भाव है। यह ‘स्व’ केवल आत्म-केन्द्रित चेतना नहीं, बल्कि एक ऐसा आत्म है जो ‘सर्व’ में विलीन होने को उद्यत है। उनकी कविताओं में ‘मैं’ का स्वर बार-बार सुनाई देता है, लेकिन वह ‘मैं’ किसी एक नारी का नहीं, बल्कि संपूर्ण स्त्री समाज का प्रतिनिधित्व करता है।
‘तरुनिल’ की कविताएँ स्त्री विमर्श की एक सशक्त धारा से जुड़ती हैं। वह केवल अस्मिता की बात नहीं करतीं, बल्कि उसमें सामाजिकता, सांस्कृतिक चेतना और निजी संबंधों की गहराई भी समाहित रहती है। एक ओर जहाँ कवयित्री के अनुभवों में आत्मीय संबंधों की मधुरिमा है, वहीं दूसरी ओर सामाजिक विडंबनाओं के प्रति स्पष्ट प्रतिरोध भी है।
यह कवयित्री की सशक्त सामाजिक दृष्टि है, जो काव्य के माध्यम से विचारों को जनमानस तक पहुँचाती है। यह एक कवि का सामाजिक उत्तरदायित्व है—और ‘तरुनिल’ इसे बखूबी निभाती हैं। इस संग्रह में प्रकृति और प्रेम की कविताएँ एक मधुर कोलाज की तरह उपस्थित हैं। ‘संग तुम्हारे’ शीर्षक कविता न केवल प्रेम की उत्कटता को उभारती है बल्कि उसमें एक अंतर्निहित आत्मसम्मान का भाव भी सुरक्षित रखती है।
यह पंक्ति प्रेम में स्त्री के आत्मविलोपन के विरुद्ध एक सशक्त उद्घोष है। कवयित्री का यह स्त्री-पक्षीय दृष्टिकोण नारेबाज़ी से परे, एक संवेदनशील और विवेकशील विमर्श प्रस्तुत करता है। ‘तरुनिल’ की कविताओं में राष्ट्रचेतना का भी महत्वपूर्ण स्थान है। आज के संदर्भों में जब भारत को पुनः ‘विश्वगुरु’ के रूप में देखने की आकांक्षा बढ़ रही है, तब कवयित्री हमारे सांस्कृतिक वैभव और मूल्यों की ओर लौटने की प्रेरणा देती हैं। वे बुद्ध के ‘पलायन’ को प्रश्नांकित करते हुए, कृष्ण और विवेकानंद जैसे नायकों को स्त्री-गरिमा और राष्ट्र-निर्माण के लिए प्रासंगिक ठहराती हैं।
रचना-शिल्प की दृष्टि से यह संग्रह मुख्यतः मुक्तछंद में रचा गया है। छंदों का बंधन जहाँ भी आया है, वहाँ भाव-प्रवाह ने उसे साध लिया है। भाषा सरल, सहज और प्रवाहमयी है—कोई क्लिष्टता नहीं, कोई बनावटीपन नहीं। यही कारण है कि ये कविताएँ सीधे हृदय में उतरती हैं। कुल मिलाकर, ‘संग तुम्हारे’ एक ऐसा कविता-संग्रह है जो स्त्री की आत्मचेतना, सामाजिक सरोकार, प्रेम की गरिमा, और जीवन के बहुवर्णी अनुभवों को एक साथ समेटे हुए है। यह संग्रह न केवल तरुणा पुण्डीर ‘तरुनिल’ के कवि-व्यक्तित्व की परिपक्वता का द्योतक है, बल्कि समकालीन हिंदी कविता में स्त्री-दृष्टि के एक सशक्त स्वरूप के रूप में भी देखा जाना चाहिए। मैं इस संग्रह की गरिमा के लिए कवयित्री को बधाई देता हूँ और आशा करता हूँ कि वह अपनी काव्य-यात्रा को इसी निष्ठा और उर्ध्वगामी भाव के साथ जारी रखेंगी।