कविता में अलग बोल-वैशिष्‍ट्य

अनामिका का कविता संसार

समकालीन कविता परिदृश्‍य में अनामिका का बीते चार दशकों से हस्‍तक्षेप रहा है तथा अब तक उनके कई कविता संग्रह आ चुके हैं। हाल के वर्षों में वे स्‍त्री विमर्श की एक प्रमुख हस्‍ताक्षर भी रही हैं। जिस संग्रह ‘टोकरी में दिगन्‍त: थेरी गाथा 2014’ पर उन्‍हें यह पुरस्‍कार देने का निर्णय लिया गया है, वह बुद्धकाल की थेरियों के बहाने स्‍त्री प्रजाति की पीड़ा और मुक्‍ति का आख्‍यान है। अकादेमी पुरस्‍कार के इतिहास में कविता में पहली बार किसी स्‍त्री को पुरस्‍कृत किये जाने को भी विशेष रूप से लक्षित किया गया है। मुज़फ़्फ़रपुर, बिहार में 1961 में जन्‍मी अनामिका ने 1975 में चौदह वर्ष की आयु में अपने पहले संग्रह ‘शीतल स्‍पर्श एक धूप को’ के माध्‍यम से हिंदी कविता के परिसर में प्रवेश किया था जिसे कि उनके काव्‍याभ्‍यास का समय ही मानना चाहिए। उसके बाद दूसरा संग्रह ‘ग़लत पते की चिट्टी’ सन् 1979 में आया। ये दोनों संग्रह इस बात के गवाह हैं कि अपनी समवयस कवयित्रियों में अनामिका का प्रवेश कविता में काफ़ी पहले हुआ हालांकि ‘बीजाक्षर’(1993) से उनके कवि व्‍यक्‍तित्‍व को एक बड़ी पहचान मिली।

अनामिका की कविताओं का संसार जीवन-जगत की हलचलों से बना है। उसमें गतियाँ हैं, ध्‍वनियाँ हैं, आवाज़ें हैं। आधी दुनिया के मसले उनकी कविताओं में सहज ही प्रवेश करने लगे थे। उनकी ‘प्रथम स्राव’ कविता आधी दुनिया के अजूबे पर प्रकाश डालती है तथा पहली बार जैसे कुछ अलग-सा महसूस कराती है। प्रांरभ से ही अनामिका की कविताओं में एक देशज तत्‍व विराजमान रहा है। जहाँ दूल्‍हा दुल्‍हन, कोहबर, तेल सिंदूर काजल नींद भूख प्‍यास, ठहाके और शिकवे, चिट्ठी लिखती हुई औरत, सेफ्टी पिन, दादी, चुटपुटिया बटन जैसे विषयों पर कविताएँ हैं जो आम तौर पर अन्‍य कवयित्रियों के यहाँ नहीं मिलते। एक बोलता बतियाता हुआ स्‍त्रियों की दुनिया का समव्‍यथी संसार उनकी कविताओं में प्रकट होता है। जैसे बोल बतकहियों की एक रील सी खुलती चलती है। यह उनके वाचिक में भी दीखता है। वे ऐसे उपमान उपमेय और उत्‍प्रेक्षाओं की दुनिया आनन फानन में रच देती हैं कि लोगों को वह दूर की कौड़ी लगे किन्‍तु यही उनकी कविताओं की विशेषता है। स्‍त्री कविता के लक्षण स्‍त्री कवियों के यहाँ न हों ऐसा नहीं हो सकता। स्‍त्री कविता का यह वैशिष्‍ट्य भी है कि वह दूर से ही किसी स्‍त्री की कविता के रूप में झलकती है। इन कविताओं को पढ़ते हुए मालूम होता है कि स्‍त्री होने का एक ताना बाना अनामिका की कविताओं को एक ख़ास प्रभामंडल देता है जहाँ स्‍त्री की पीड़ा भी जैसे मद्धिम मद्धिम आँच में महसूस होती है तो उसकी आत्‍मा के निर्मल एकांत की ख़ुशबू भी आती है। वे ख़ुद कहती हैं, “नैहर आई बेटी से माँ का जैसा अविरल, अभंग, सतत प्रवहमान, सहस हृदय संवाद होता है– कुछ वैसा ही संवाद कविता जन जन से चाहती है। घर के किसी कोने में अनादृत पड़े वयोवृद्ध, ज्ञानवृद्ध अभिभावन की तरह कविता चाहती है लोगों के सूक्ष्‍मतल भाव तरंगों, सुख-दुख, उत्‍थान-पतन से जुड़ना, पर लोग उसे अभेद्य, अबूझ और अप्रासंगिक समझ कर किनारा किए रखते हैं और उसका संवाद हमेशा अधूरा रह जाता है।” (भूमिका, अनुष्‍टुप, पृष्‍ठ 7)

आज हर स्‍त्री कवि को पहले स्‍त्री विमर्श की कसौटी पर देखा परखा जाता है फिर कविता की कसौटी पर। किन्‍तु अस्‍सी के दौर में ऐसा न था। हिंदी के परिदृश्‍य में स्‍त्री कवियों की कमी तो न थी पर Ük`aगार, विरह, प्रतीक्षा, समर्पण की पराकाष्‍ठा वाली कविताओं का दौर था। ‘आधुनिक हिंदी कवयित्रियों के प्रेमगीत’ (सं. क्षेमचंद्र सुमन) संचयन में शामिल कवियों में ऐसी कवयित्रियों की तादाद ज़्यादा थी। वहाँ भावपूर्ण संवेदना का ज्‍वार तो लहराता था पर आधुनिकता व स्‍वतंत्रता की चेतना उतनी प्रखर न थी। स्‍त्री कवियों में महादेवी वर्मा, सुभद्राकुमारी चौहान, सुमित्रा कुमारी सिन्‍हा या विद्यावती कोकिल और बाद में सप्‍तकों की कवयित्री स्‍नेहमयी चौधरी व शकुंत माथुर जैसी कवयित्रियों को छोड़ कर कविता के फलक पर कोई चर्चित हस्‍ताक्षर न था। छंद की साधिकाएँ ज़रूर अनेक थीं। अस्‍सी के दशक के बाद से जैसे-जैसे स्त्रीवाद और स्‍त्री चितंन का प्रसार हुआ, विदेशी कविताएँ हिंदी में अनूदित होने लगीं, स्‍त्री कविता का संसार भी आधुनिकतावादी स्‍त्रियों के इस संसार के निकट आया। हिंदी कविता में अब तक ऐसी ही कवयित्रियों का संसार था जहाँ एक तरफ़ कविताएँ छायावादी-अध्‍यात्‍मवाद के निकट ले जाती थीं, दूसरी तरफ़ वे भक्‍ति व समर्पण के रस में डूबी हुई दिखती थीं। स्‍त्री दुख भी रहस्‍य के आवर्तन में लिपटा होता था। अस्‍सी के बाद स्‍त्री-पुरुष समानता की आवाज़ें उठने लगीं। भारत के संविधान में भी स्‍त्री अधिकारों को लेकर नए कानून बने। स्‍त्री जागरण का एक नया माहौल बना। यद्यपि मंचों पर स्‍त्रियों की आमद कम थी किन्‍तु वह पत्र पत्रिकाओं में लिखने और दिखने लगी थी।

यह वह समय था जब विश्‍व के स्‍त्री चिंतकों व स्‍त्रीवादियों के विचारों की आहट यहाँ बख़ूबी पहुँच रही थी। इसका फ़ायदा स्‍त्री लेखन को मिला। यद्यपि अमृता भारती में दार्शनिकता का आवेग ज़्यादा प्रभावी दिखता था किन्तु तेजी ग्रोवर, गगन गिल, कात्‍यायनी व अनामिका के यहाँ स्‍त्रीवाद की आहट महूसस की जाने लगी थी। ये सारी कवयित्रियाँ अस्‍सी के बाद अपनी पहचान बनाने लगी थीं। नवें दशक में अनेक कवयित्रियों के संग्रह सामने आए तथा कविताओं में अधिकारचेता स्‍त्री की आवाज़ उठने लगी थी। अनामिका ने केवल स्‍त्री की बात ही नहीं की बल्‍कि ऐसे विषय भी कविता में लिए जो सामान्‍यत: पुरुष कवियों के क्षेत्र के थे। जैसे ‘निस्‍संतान दम्‍पति का आपसी संलाप’ ऐसी कविता है जो पढ़ते ही आँख भिगो देती है। कैसे इस तरह के दम्‍पती नौ महीने की असाध्‍य प्रतीक्षा के बाद इस सुख से वंचित रह जाते हैं इस बात को अनामिका ने मार्मिकता से रखा है। इस कविता की शुरुआती पंक्‍तियाँ देखें–

“अगम्‍य हमें जहाँ-जहाँ ले गया, हम गए

असाध्‍य हमसे जो हो करवाता रहा, हमने किया।”

“हम उस घर में रहे जो बना ही नहीं

और तुमने आवेगविह्वल होठों से हुक तोड़

पी भी लिया मेरा दूध

जो उतर सकता था, पर नहीं उतरा–

मेरी संतप्‍त शिराओं के तन कर फट जाने के

नौ माह बाद तक।”

(अनुष्‍टुप, पृष्‍ठ 81)

इस कविता की पूरी तासीर इन पंक्‍तियों से मिल जाती है। आज भी निस्‍संतान दम्‍पती की पीड़ा को भला कौन समझ सकता है एक कवि के सिवा। यह वह समय था जब पूजाघर ही दादी का कोप भवन होता था, अपना कोना बूँद भर। ‘अयाचित’ कविता स्‍त्री के छीजते अस्‍तित्‍व का बयान हो जैसे। यही वह दौर था जब वे लिख रही थीं– “मैं एक दरवाज़ा थी/ मुझे जितना पीटा गया/ मैं उतना खुलती गयी।” स्‍त्री का संसार चूल्‍हे चौके तक ही था। इसलिए वह अनामिका की कविता में भी वैसी ही झलक देती थी–

वह रोटी बेलती है जैसे पृथ्‍वी

ज्‍वालामुखी बेलते हैं पहाड़,

भूचाल बेलते हैं घर।

सन्‍नाटे शब्‍द बेलते हैं, भाटे समंदर।

रोज़ सुबह सूरज में

एक नया उचकुन लगाकर

एक नई धाह फेंक कर

वह रोटी बेलती है जैसे पृथ्‍वी।

…..

सारा शहर चुप है

धुल चुके हैं सारे चौकों के बर्तन।

बुझ चुकी है आख़िरी चूल्‍हे की राख भी

और वह अपने ही वजूद की आँच के आगे

औचक हड़बड़ी में ख़ुद को ही सानती

ख़ुद को ही गूँधती हुई बार बार

ख़ुश है कि रोटी बेलती है जैसे पृथ्वी।

(अनुष्‍टुप, पृष्‍ठ 40)

यहाँ स्‍त्री अपने हालात से पहली बार रू-ब-रू हुई थी और अपनी बात सामने रख रही थी। अब ज़माना बदल चुका है पर अरसे से स्‍त्री चूल्‍हे चौके में ही सारी उम्र खपती रही है दूसरों की क्षुधापूर्ति के लिए जहाँ उसका नंबर सबसे बाद आता रहा है– बचा खुचा। या फिर जूठन भी। अनामिका इस संसार को कविता में लाने की पहल करती हैं जैसे अन्‍य स्‍त्रियाँ ला रही थीं। पर यहीं वे ‘स्‍नान’ जैसी कविता लिखती हैं। यह शुद्ध कविता की अनुभूति तो देती ही है, पीड़ित अंतरात्‍मा के स्‍वर से भी साक्षात कराती है: धीरे-धीरे मेरे कंधे से उतर रहा है मेरा घर। धीरे-धीरे उतर रही है मेरी चमड़ी। (अनुष्‍टुप, पृष्‍ठ 56) यह कविता उनके संग्रह ‘दूब-धान’ में भी संकलित है। उनकी भाषा शुरू से ही कुछ चपल कुछ ख़ुशमिज़ाज कुछ खेल खेल में रचने का सुख लेने वाली रही है इसलिए भाषा में नवाचार तो पग पग पर मिलेंगे बल्‍कि इतने नए शब्‍द खनकदार कि क्‍या कहें! इन्‍हीं शब्‍दों के आधार पर हम अनामिका की कविता का पूरा समाजशास्‍त्र समझ सकते हैं।

कवि-कर्म : स्‍व-भाव और पहचान

अनामिका के कवि कर्म का जहाँ तक सवाल है, उन्‍हें सब कुछ सहज ही उपलब्‍ध नहीं हुआ। एक पहचान-योग्‍य कवयित्री बनने के लिए एक लंबी यात्रा तय करनी पड़ी है। लिखना-छपना भले ही उन्‍होंने 14 बरस की उम्र से शुरू किया। 1975 में पहला संग्रह आ गया; पर ‘बीजाक्षर’ व ‘अनुष्‍टुप’ के बावजूद उनके कवि व्‍यक्‍तित्‍व का पहला मोड़ ‘खुरदुरी हथेलियाँ’ (2005) हैं, दूसरा ‘दूब-धान’ (2008) और तीसरा ‘टोकरी में दिगंत: थेरी गाथा 2014’ है। ये उनकी कविता के तीन बड़े पड़ाव हैं। यह भी कह दूँ कि उनकी कविताएँ छोटी प्रकृति की नहीं हैं। वे बोलचाल में हैं, संवादों में हैं, आख्‍यानमूलक हैं इसलिए वे सामान्‍यत: लंबी भी हैं। अनामिका कविता में ‘ब्रेविटी’ यानी मितकथन का मानक तोड़ती हैं। यह उनकी कविता का सहज स्‍वभाव भी है। उनमें कह देने का एक आवेग नज़र आता है। कुछ छूट न जाय यह सतर्कता भी। दूसरे, उनकी कविता ऐसे कोई सेंसर्स नहीं मानती कि हाय यह क्‍या लिख दिया! लोग क्‍या कहेंगे! ‘ब्‍लाउज’ कविता में उनका कहना कितना वात्‍सल्‍य भरा है: “मेरा ब्‍लाउज मेरे बच्‍चे का गुल्‍लक है। कहीं से भी घूमता टहलता हुआ आता है और बड़े निश्‍चिंत भाव से पोस्‍ट कर जाता है / चकमक पत्‍थर, सीपी, सिगरेट की पन्‍नियाँ, खिलौनों के नट बोल्‍ट, सारे अखोर बखोर।” वे ‘त्‍यक्‍तलज्‍जा सुखी भवेत्’ का मानक अपनाती हैं। पर ऐसा करते हुए भी वे आज की उन कवयित्रियों जैसी नहीं हैं जो सतही चर्चा पाने के लिए गुह्य अंगों या वस्‍त्रों के प्रतीकों को काव्‍याधार बनाती फिरें।

अनुष्‍टुप उनके कवि व्‍यक्‍तित्‍व को एक धार देता है तो खुरदुरी हथेलियाँ और दूब-धान उसे निखार तथा टोकरी में दिगंत– परिपक्‍वता। यह ‘अपनी केवल धार’ जैसा निखार नहीं है। यहाँ लोहा भी अपना है और धार भी अपनी है। अनामिका अपने काव्‍योपकरणों के लिए कहीं अन्‍यत्र नहीं जातीं। ख़ुद की यायावरी और देखे भोगे अनुभवों को शब्‍द देती हैं। बोल-बतकहियों में वे दादी नानी की प्रजाति के बोल-वैशिष्‍ट्य से लैस लगती हैं। आत्‍मा के तलघर में उतर कर बतियाती हुई। वे अपने वाचिक में भी दूर की कौड़ी लाती हैं कि सुनने वाला औचक यही सोचता रह जाता है कि क्‍या ख़ूब कहा है। उनकी कविताएँ न आसानी से संवेद्य हैं न सरलता से वेध्‍य– वे इस समाज का जीवंत नैरेटिव हैं। ऐसा नैरेटिव जो इतिवृत्‍तात्‍मक महाकाव्‍यात्‍मक संरचना को तोड़ कर बनता है। जैसे कोई सुगठित छंदों को तोड़ कर संवादों में बदल कर कहे। जीवन के खटराग से निकली सारी ध्‍वनियाँ अंतर्ध्‍वनियाँ ऐषणाएँ, तृष्‍णाएँ, पीड़ाएँ यहाँ एकाकार नज़र आती हैं। विदेशी कविताओं के अपार पठन-पाठन के बावजूद उन्‍होंने कविता रचने का स्‍थापत्‍य बाहर से नहीं लिया कि लगे कि यह बात किसी अनूदित कविता की संरचना में कही जा रही है। भारतीय काव्‍यभूमि और भावभूमि उनके यहाँ सदैव सहचरी की तरह गले मिलती हैं। एक दूसरे को संवलित करती हुई। रचती हुई। अपने संग्रह हो अनुष्‍टुप नाम देना भी कविता के भारतीय संस्‍कारों का स्‍तवन है।

‘टोकरी में दिगंत : थेरी गाथा 2014’ को अकादेमी पुरस्‍कार दिए जाने के प्रसंग में उनके स्‍त्री होने को अहम माना जा रहा है तो शायद इसलिए कि हाल के दशकों में साहित्‍य में स्‍त्रियों की न केवल आमद बढ़ी है बल्‍कि वे सदियों से स्‍त्री की सत्‍ता को लेकर रुढ़िग्रस्‍त हिंदी समाज से सवाल उठाने में मुखर और प्रखर हुई़ हैं। लैंगिक असमानताओं को लेकर एक लंबी लड़ाई लड़ते हुए वे पारिवारिकता की सीमाओं में रहते हुए मानवीय मोर्च पर एक बड़ी लकीर खींच रही हैं। अपने लेखन, कविताओं, आख्‍यानों और विमर्शों में अनामिका ने सदैव उस स्‍त्री का पक्ष लिया है जो समाज में सताई जा रही है किन्‍तु जिसने इस भवसागर में नौका खेते हुए नेह-छोह की पतवारें नहीं छोड़ीं। कविवर केदारनाथ सिंह ने जैसा कहा था, उम्‍मीद नहीं छोड़ती कविताएँ, अनामिका की कविताएँ पौरुषेय ताकतों से सवाल करती हुई भी उम्‍मीद नहीं छोड़तीं।

स्‍त्री विमर्श: लीक से अलग

अनामिका का स्‍त्री विमर्श पुरुष प्रजाति को केवल कटघरे में रखने वाला नहीं रहा बल्‍कि सख्‍य और सौहार्द्र का मरकज़ भी रहा है। दुनिया भर के स्‍त्री विमर्शों पर अधिकार के साथ अपनी बात रखने वाली अनामिका ने इसकी कटु और एकपक्षीय छाया अपनी कविताओं पर नहीं पड़ने दी तथा परिवार, समाज के बीच स्‍त्री होने के दंश से उपजी व्‍यथा और स्त्री होने की गरिमा को उत्‍सवता के साथ जीने वाले समाज में गाँव-घर व छोटे शहर की स्‍त्रियों का एक ऐसा जीता-जागता, बोलता-बतियाता हुआ संसार सामने रखा है कि वे अपने पूरे रचाव में एक भारतीय कवयित्री की मुकम्‍मल इकाई प्रतीत होती हैं। परंपरा और आधुनिकता की पायदान पर क़दम टिकाए यह कवयित्री अपने कथ्‍य और अंदाज़ेबयाँ के लिए किसी वायवीय कौशल और कविता के पाश्‍चात्‍य ढाँचे का सहारा न लेकर अपनी सांस्‍कृतिक और भौगोलिक जड़ों को टटोलती है। इसीलिए उनके रचना संसार में रेणु की तरह उनका अंचल बोलता है, देश और काल बोलता है, स्‍त्रियों का समवेत स्‍वर बोलता है। उनके समूचे काव्‍य जगत में स्‍त्रियाँ, मौसियाँ, वृद्धाएँ धरती का नमक हैं, पत्‍ता पत्‍ता बूटा बूटा, खुरदुरी हथेलियाँ, आम्रपाली, सेफ्टीपिन, चकलाघर की एक दुपहरिया, चुटपुटिया बटन, कमरधनियाँ, तिरहुतिया दुलार, अमरफल, टैगोर को मेरा प्रेमपत्र, प्‍लेटफार्म पर ग्रामवधुएँ, कान्‍तासम्‍मित, दरवाज़ा, चौदह बरस की दो सेक्‍स वर्कर्स, लंबी छुट्टी पर है ईश्‍वर– जैसी कुछ चुनिंदा कविताओं को देखें तो इनमें वह वस्‍तुस्‍पर्शिता और परदुख-कातरता है जो ‘निज के आलाप और गिरह’ में इन दिनों कविता से परे छिटकती जा रही है।

अनामिका ने अंग्रेज़ी में उच्‍चतर तालीम हासिल की, ईलियटोत्तर कविता और युद्धोत्तर अमरीकी स्‍त्री कवियों के प्रेम और मृत्‍यु पर चिंतन पर शोध किया, अंग्रेज़ी के अध्‍यापन से जुड़ीं, किन्‍तु लेखन के लिए हिंदी का ही दामन थामा और ‘बीजाक्षर’ से लेकर, अनुष्‍टुप, खुरदुरी हथेलियाँ, दूब-धान, टोकरी में दिगन्‍त तथा ‘पानी को सब याद था’ तक के कविता संसार में मिथकीय, जातीय और लोक-स्‍मृतियों के बीज छितेरे। अनामिका ने स्‍त्री विमर्श के कोलाहल में अपना स्‍वर विलीन न कर उसकी अलहदा बुनियाद रखी तथा पुरुष प्रजाति के जंग खाये सामंती विचारों की खुरचन झाड़ती रहीं तथा पुरुष में प्रेम के अनसूखे जलस्रोतों के प्रति आस्‍थावान रहीं। कविता के साथ साथ स्‍त्री विमर्श एवं कथासंसार में भी उनकी गति समान रही तथा ‘दस द्वारे का पींजरा’, ‘तिनका तिनके पास’ और हाल ही आए ‘आईनासाज़’ ने उन्‍हें एक समर्थ उपन्‍यासकार के रूप में प्रतिष्‍ठित किया। पंडिता रमाबाई और ढेलाबाई की महागाथा (दस द्वारे का पींजरा) हो या मुज़फ़्फ़रपुर की सेक्‍सवर्कर बेटी की शोषणकथा (तिनका तिनके पास) या ’आईनासाज़’ में मध्‍ययुगीन ख़ुसरो से वर्तमान युग के स्‍त्री जीवन को मिलाने वाली कथा– अनामिका ने कविताई के साथ क़िस्सागोई में भी अपना लोहा मनवाया है।

‘टोकरी में दिगन्‍त’ को पुरस्‍कार मिलना उनके लिए क्‍या अर्थ रखता है?, वे कहती हैं, “ओम जी, मेरी कविता एक समवेत पुकार है। इनमें जैसे सब लोग एक साथ बोल रहे हैं। कई स्‍त्रियों का गाँव बसा है। मिथकों, स्‍मृतियों व जातीय स्‍मृतियों का सहकार रचा बसा है। यहाँ मुज़फ़्फ़रपुर के गाँव कस्‍बों व छोटे शहरों की लड़कियाँ और स्‍त्रियाँ हैं जो हृदय-संवाद करना चाहती हैं। वे कभी-कभी चुप्‍पी का सहारा भी लेती हैं, जहाँ उन्‍हें उपयुक्‍त शब्‍द नहीं मिलते, कभी मौन के महासागर में भी उतर जाती हैं और मौन के महासागर के किनारे खड़ी सूर्योदय देख रही होती हैं। वे चुप्‍पी का सौंदर्यशास्‍त्र गढ़ती हैं तो चपल बतकहियों का भी। वे कहती हैं कि स्‍वभाव से संकोची स्‍त्रियाँ पहले के समय में अपने मन की बात जोगियों से करती थीं। उनके सम्‍मुख अपना हृदय-पट खोल देती थीं। आज भी स्‍त्रियाँ चाहती हैं कि पुरुष उनसे सखा-सरीखा व्‍यवहार करे, उसे ‘शरीर’ में ‘रिड्यूस’ कर न देखे। वह उसके मन:संसार में उतर कर बातें करे जैसे मीराबाई कृष्‍ण की प्रतिमा को सखा मान कर बात करती हैं जिससे उनको कितना बल मिलता रहा होगा। ऐसे गढ़ंत, ऐतिहासिक या मिथकीय चरित्र स्‍त्रियों को बल देते हैं।”

अनामिका पुरुष को विलोम नहीं, स्‍त्री का पूरक मानती हैं। वे कहती हैं, “स्‍त्री की समस्‍या यही है कि वह हृदय की बात किससे करे। आम्रपाली जैसे कई चरित्र यही संदेश देते हैं। वह और अन्‍य स्‍त्रियाँ बुद्ध से मन की बात कह सुख पाती हैं जिससे उनका हृदय-छंद मिलता है। बुद्ध उनके साथ न्‍याय करते हैं।” तभी आम्रपाली वैभव के प्रस्‍तावों को ठुकरा कर बुद्ध की शरण में आई थी। वे कहती हैं “ओम जी, इस संसार में स्‍त्री से कोई ज़रा भी हमदर्दी से बात कर ले तो वह अपना हृदय उड़ेल देती है। इसलिए मेरी कविता सिर्फ मेरी कविता नहीं, यह कोरस है, समवेत पुकार है, वृंदगान है सहकारिता का, स्‍पर्धा का पाठ नहीं। वे ऐसा पुरुष समाज चाहती हैं जो साथ चलने वाला हो, मैत्री में विश्‍वास रखता हो, ऐसे समाज की कल्‍पना करती हैं जहाँ सबकी बात सुनी जा सके। एक बातचीत में वे कहती हैं, “ये पुरुष हमने ही तो पैदा किए हैं। मैं तो बस उनके कोट की धूल झाड़ती हूँ, हृदय पर पड़ी काई हटाती हूँ, उस व्‍यक्‍ति को नहीं, उसकी चेतना पर पड़ी धूल बुहारती हूँ और यही तो एक कवि का दायित्‍व है। मैं चाहती हूँ कि हमारे समय की ध्रुवस्‍वामिनी को चंद्रगुप्‍तों का समाज मिले, रामगुप्‍तों का नहीं।”

‘टोकरी में दिगंत– थेरी गाथा 2014’ की एक कविता ‘शांता थेरी बोली’ का एक वाक्‍य जैसे उनकी कविता का ध्‍येय वाक्‍य बन गया है: “चाहती हूँ विस्‍फोट– एक प्रज्ञावान, प्रतिबद्ध, अहिंसक किन्‍तु अटल और सामूहिक विस्‍फोट।” ऐसे ही अकाट्य जीवन विवेक की कल्‍पना कुंवर नारायण ने भी ‘वाजश्रवा के बहाने’ में की है। थेरी गाथा की थेरियाँ स्‍त्रीचेतना का आदिम स्‍फुलिंग हैं– अंत:पुर से बाहर आती स्‍त्री की सामूहिक इकाइयाँ। वे हिंदी कविता में अलग से दिखाई देने वाले कथ्‍य, संवेदन और भाषिक मुहावरे की जननी हैं। इसीलिए वे स्‍त्री मुक्‍ति के उन अभियानों का समर्थन नहीं करतीं जिनमें उसकी देह की मुक्‍ति और उस पर घात लगाए वर्चस्‍ववादी पुरुष और बाज़ार की निगाह है। उन्‍हें कामगार की खुरदुरी हथेलियाँ दुनिया की सबसे पानीदार और नमकीन लगती हैं जो तपते हुए माथे के लिए पट्टियाँ बन जाती हैं। यही वे सरोकार हैं जो उन्‍हें निचले तबके के प्रति संवेदी और समव्‍यथी बना देते हैं।

उनकी कविता में खुरदुरी सतहें हैं, चाकचिक्‍य वाली आधुनिकता नहीं। तथापि, वाचिक सरसता में डूबी हुई उनकी कविताएँ अपनी ही गढ़ी दुनिया के अवसाद का शोक गीत गाती हुई नि:शेष नहीं हो जातीं बल्‍कि जीवन व समाज के खटराग की ध्‍वनियों को सहेजती बरतती हैं। उनकी कविताएँ उन पुरुषों से भी प्रीति जताती हैं, दुनिया ने जिन्‍हें कभी प्रेम न दिया, न मान। कभी उन्‍होंने कहा था, चाहती हूँ शब्‍दों की पुलिया बनाना– दुनिया के सारे ध्रुवांतों के बीच यह पुलिया बनेगी तो दूरियाँ पटेंगी– न्‍याय और करुणा,प्रेम और अहिंसा का मर्म जगाने में इन शब्‍दों की मदद चाहती हूँ।”

अंत:पुर से बाहर आती स्‍त्री

जैसा कि कह आया हूँ कि अनामिका का स्‍वर कविता में शुरू से ही अपने समकालीनों से अलग रहा है। न तो उन्‍होंने स्‍त्री विमर्श की प्रचलित पगडंडी पर चल कर अपने स्‍वर को स्‍त्रीवादियों के अनुकूल गढ़ना चाहा है न ही वे अपने ही अंत:पुर के एकांत में साधनारत दिखाई देती हैं। वे हिंदी कविता में अलग से दिखाई देने वाले कथ्‍य, संवेदन और भाषिक मुहावरे की जननी हैं। ‘खुरदुरी हथेलियाँ’ में वे जीवन के घमासान में छितरे बिखरे प्रसंगों को उठाते हुए वे स्‍त्री विस्‍थापन के ऐसे मार्मिक क्षणों को अपनी कविता में सहेजती हैं जो अभी कविता में विरलता से प्राप्‍य हैं। स्‍त्री की बहु विज्ञापित उत्‍सवी छवि के विपरीत वे इस बात को रेखांकित करती हैं कि उन्‍हें जिस रूप में समाज में देखा और समझा जाना चाहिए था, वैसा नहीं हुआ है। वे प्राय: अवमूल्‍यन के हाशिए पर ढकेली गई हैं। किन्तु इस बात को उठाने का उनका सलीका नितांत काव्‍यात्‍मक है।

अनामिका के यहाँ स्‍त्री अंत:पुर से बाहर आती हुई अपने दुख, अवसाद, अकेलेपन तथा संत्रास को भूल कर तमाम तरह के चरित्रों से बोलती बतियाती और उनके सुख-दुख में शामिल दिखाई देती है। उनकी अंतश्‍चेतना में गँवई और घरेलू चरित्र तथा उनकी बोली बानी के चीन्‍हे-अचीन्‍हे संवाद भी उसी पुलक से समाए होते हैं, जिस विदग्‍धता से उनके बौद्धिक किन्तु तरल मानस में देश विदेश की घटनाएँ हलचल मचाती हैं। ‘खुरदुरी हथेलियाँ’ भले ही अंत:पुरम्, दुधकट्टू, कुछ अटपटी प्रेम कविताएँ, आज़ादी, मुसलमान क्‍या होते हैं अम्‍मा, और तोस-भरोस जैसे खंडों में बाँट रखा हो, पर इनमें परस्‍परता का सूत्र नज़र आता है।

अनामिका की कविता स्‍वतंत्रचेता स्‍त्री की खोज है। स्‍वतंत्रचेता होते समाज में स्‍त्रियों के हिस्‍से में भी आज़ादी की थोड़ी धूप और हवा आई है। वे पुरुषपोषित वातावरण में रहते हुए भी आत्‍मनिर्भरता के अवलंब तलाश रही हैं। वे करुणा और दया की नहीं, सहानुभूति और परस्‍परता की आकांक्षी हैं। उनमें प्रथम पुरुष का दर्प नहीं है, अन्‍य पुरुष का सा सहज भाव है। किन्तु वे ‘तुम हो यह पर्दा हिला कर बता दो’ वाली दमघोंटू पहचान से बाहर निकलने के लिए विकल हैं। अचरज नहीं कि अनामिका की कविता ‘स्‍त्रियाँ’ का स्‍वर अन्‍यान्‍य वाले अन्‍यायी भाव के विरुद्ध स्‍त्री का एक सबल हस्‍तक्षेप बन कर उभरा है जिसमें स्‍त्री चाहती है कि उन्‍हें दूर के रिश्‍तेदारों के दुख की तरह न देखा जाए, नौकरी के पहले विज्ञापन की तरह अहमियत के साथ पढ़ा जाए। ऐसे देखा जाए जैसे ठिठुरते हुए देखी जाती है बहुत दूर जलती हुई आग। अनहद की तरह उन्‍हें सुना और नई नई सीखी हुई भाषा की तरह समझा जाए– यह सामाजिक परिदृश्‍य में उभरती हुई नई स्‍त्री की पुकार है। परंपरा के पाठ सेयह जानते हुए भी कि ‘लड़कियाँ हवा, धूप मिट्टी होती हैं, उनका कोई घर नहीं होता,’ वह नहीं चाहती कि घर बार, लोग बाग, तमाम सवाल और छूटती हुई जगहों के असह्य विछोह के बाद उसकी नियति के इस दुखद परिच्‍छेद से कोई फिर से उठाये, उसकी समग्रता से व्‍याख्‍या करे। कवयित्री चाहती है कि सारे संदर्भों के पार उसे एक अधूरे अभंग की तरह समझा व पढ़ा जाए। सच कहें तो स्‍त्री जीवन विस्‍थापनों का ही पर्याय है। पिता के घर से पति के ठीहे तक पहुँच कर भी कभी-कभी उसे गंतव्‍य नहीं मिलता। वह कंघी में फँस कर बाहर आए केशों सी बुहार दी जाने वाली नियति को प्राप्‍त होती है।, पर अपनी अस्‍मिता को थकने नहीं देती। एक संकल्‍प भरे दिए की तरह उसकी इच्‍छा की लौ निष्‍कंप जगमगाती है–

आँखों में बस कर मैं भी काजल हो जाती

माथे पर चढ़ कर डिठौरा

नहीं बसी नहीं चढ़ी– नहीं सही

ख़ुश हूँ मैं मोखे की दीवारों पर भी

जानती हूँ इतना– काल की दीठ में

काजल की धार-सी सजूँगी मैं

कभी न कभी।

(खुरदुरी हथेलियाँ; काजल, पृष्‍ठ 18)

– यह भरोसे का दिया अनामिका के पूरे काव्‍यसंसार में जगमगाता है। मौसियाँ, एक औरत का पहला राजकीय प्रवास, पतिव्रता, ऊनी टोपी, यथाप्रश्‍न और वृद्धाएँ धरती का नमक हैं– जैसी कविताओं में स्‍त्रियों के कोने अंतरे खंगाले गए हैं। बारिश के बाद नम हो गयी मिट्टी की तरह मुलायम मन वाली स्‍त्रियों की नगण्‍य ख्‍़वाहिशों से होकर बहुत प्‍यार करता है जो तुझको किसका है किसकी है तनी हुई भवें और किसका है यह मुझ पर लहराता हुआ चाबुक– जैसे यक्ष प्रश्‍नों से गुज़रती क्षमाप्रार्थी मुद्रा में अपने होने की निरर्थकता में जीती वृद्धाओं तक अनामिका की कविताएँ आँखों के कोरों को थोड़ा और नम कर जाती हैं।

परंपरा से विलग न आधुनिकता से अलग

अनामिका की कविताओं में परंपरा से विचलन नहीं, उस पर पाँव टिका कर आधुनिकता की ओर क़दम बढ़ाने की कोशिश मिलती है। उनके अनुभवों को प्रगाढ़ बनाने में दादी नानी और मौसियों की पीढ़ी से लेकर बहनों भाइयों और अपनी संतति से उपजे वात्‍सल्‍य तक का गहरा योगदान है। इसीलिए अनामिका स्‍त्री मुक्‍ति के उन अभियानों का समर्थन नहीं करतीं जिनमें उनकी देह की मुक्‍ति ओर उस पर घात लगए वर्चस्‍ववादी पुरुष और बाज़ार की निगाह है। इसलिए ‘खुरदुरी हथेलियाँ’ की ‘दूधकट्टू खंड’ की कविताओं में स्‍त्री का मातृत्‍व छलकता है। बच्‍चे की अधीर पुकार– माँ– माँ के आलस्‍य को स्‍प्रिंग की तरह उछाल देती है। नींद में पिता की स्‍मित मुस्‍कान सुपर सीरियस घर में उत्‍सव बन जाती है। सच कहती हैं अनामिका– उसके पुकारते ही/ दुनियाके सब बंद दरवाज़े धड़ से खुलेंगे/ गूँजेंगी गिरजे की घंटियाँ/ फिर लौट आएगा घर। ‘दुधकट्टू’ की कविताएँ घर के भीतर घर की तलाश हैं– एक घरेलू भावलोक में जीती गृहिणी का वृत्‍तांत।

किन्‍तु स्‍त्री होने की विडंबना और माँ बनने के सुखद चमत्‍कार के बावजूद क्‍या स्‍त्री प्रेम का अनुभव कर पाती है?– कुछ अटपटी प्रेम कविताएँ इसी आकांक्षा का इज़हार हैं। यहाँ थोड़े ही दिनों के सेमिनारी साहचर्य से उपजा प्रेम भी एक अजब सा वियोग बन कर चमकता है तो लिफ़ाफ़े से उखाड़े गए डाक टिकट की तरह जीवन में कुछ न कुछ जुड़े रह जाने का और पुनश्‍च टाँकने के बाद भी बहुत कुछ अनकहा रह जाता है। कया यह प्रेम की कौंध नहीं है जो हौले-हौले इन पंक्‍तियों में यादों की किरचें बिखेरती हुई चमक उठी है– उसकी आँखों में थी/ नारियल पानी-सी धूप/ और कोवलम तट के बालू की हल्‍की धमक। इसी तरह ‘धुनिया’ भी बड़े गुन-धुन के साथ लिखी कविता है। रेशा रेशा धुने जाने की प्रक्रिया में तोशक में पड़ी चीकट रूई की निस्‍पंद देह-सी छोड़ी हुई खोल को निहारना इस कविता में धीरे-धीरे तय का संचार करता है।

कहने को अनामिका अंग्रेज़ी में दीक्षित है। लेकिन उनका मनोजगत अंग्रेज़ियत में नहीं, भारतीयता में सांस लेता है। अंग्रेज़ी कविता इस बात का साक्ष्‍य है कि दुनिया भर में पैगंबर बनी घूमती दूसरे भाषा घरों के बच्‍चों का उत्तप्‍त माथा चूमती अंग्रेज़ी के वर्चस्‍व को कवयित्री ने यों अनुभव किया है–

सेंध लगा देती हैं अंगरेज़ी दुनिया के बच्‍चों के सपनों में यों ही

एक बार घुसती है पिछले दरवाज़े से

फिर सामने आकर कहती है पूरे विनय से

मे आई कम इन बच्‍चे?

(खुरदुरी हथेलियाँ, पृष्‍ठ )

कवि तो सदैव विश्‍व नागरिक होता है। उसके लिए सरहदें मायने नहीं रखतीं। वह फैज़ से भी प्‍यार करता है, फ़हमीदा रियाज़ से भी। मुसलमान क्‍या होते हैं अम्‍मा? खंड की कविताओं में बेचारे पापा और सूक्‍तियाँ अच्‍छी कविता है, पर इसे पढ़ते हुए कुंवर नारायण की एक अजीब सी मुश्‍किल तथा केदारनाथ सिंह की कविता-प्रविधि की याद हो आती है। एक और कविता पत्‍ता पत्‍ता-बूटा बूटा में केवल यह मासूम सवाल भर ही नहीं उठाया गया है कि मुसलमान क्‍या होते हैं अम्‍मा बल्‍कि पीछे यह सचाई भी लक्ष्‍य है कि हमारे समाज की समरस चादर में अभी मनुष्‍यता पूरी तरह अपने पाँव नहीं फैला सकी है। उसे अभी भी उदार अंत:करण की प्रतीक्षा है।

हम न भूलें कि अनामिका एक ऐसे भाव संसार में जीती हैं जहाँ बौद्धिकता की अपनी अहमियत है। एक बौद्धिक इकाई के रूप में यथार्थ को वह हर जगह खिलंदड़े भाव से ही नहीं टटोलतीं, बल्‍कि संजीदगी से उसे जिंदगी के आईने में उतारती भी हैं। पत्‍नी, छिटकी हुई ईेटें, भाई चारा, लघु पत्रिकाएँ, खुरदुरी हथेलियाँ, बेरोज़गार, दलाईलामा, दलित महासंघ की बैठक से लौटते हुए, भूख, भरोसा और देश जैसी कविताओं में अनामिका अपनी अनुभूतियों की एक एक ईंट विश्‍वास के साथ चिनती हैं। खुरदुरी हथेलियाँ जैसे केवल एक कविता ही नहीं, उनकी कविता का अंदरूनी वैशिष्‍ट्य भी हो। पत्‍नी कविता में पुरुष चित्त को अलग ढंग से पढ़ना, छिटकी हुई ईंटों से एक प्रचलित मुहावरे की याद दिलाना और खुली सड़क पर इन्‍हीं छिटकी हुई ईंटों पर जलते चूल्‍हों और इन पर दाढ़ी बनवाने की शहंशाही मुद्रा का बखान कविता को एक अलग आस्‍वाद देता है तो भाईचारा बरतने(?) का कवियों का अंदाज लज्‍जा से भर देता है। कवयित्री को कामगार हथेलियाँ जिन्‍हें भले ही पानी ने खुरदुरा बना दिया हो, दुनिया में सबसे पानीदार और नमकीन लगती हैं तथा तपते हुए माथे के लिए ठंडी पट्टियाँ बन जाती हैं। यही वे सरोकार हैं जो अनामिका को निचले तबके के प्रति संवेदी और समव्‍यथी बनाते हैं। यह जानते हुए कि कविता जिनके लिए लिखी जाती है वे प्राय: इसके पाठक नहीं होते, वे यह अवश्‍य जानती हैं कि समय के थपेड़ों को झेलने की क़ुव्‍वत उनमें सबसे ज़्यादा होती है और वही ये लोग हैं जो कवयित्री के शब्‍दों में, ‘जब उठाते हैं सर/ कांप जाते हैं कलेजे चट्टानों के।’ अपनी एक और कविता बेरोज़गार में वे फिर जैसे पर काया प्रवेश करते हुए एक बेरोज़गार व्‍यक्‍ति की चेतना में उतरती हुई दर्द की डगमग स्‍वरलिपियों की व्‍याख्‍या करती हैं। उनकी यह कविता पढ़ते हुए अफ्रीकी कवि बर्नाद बी दादेय की कविता हाथ की रेखाएँ याद आ जाती है–

हर भाषा है दर्द की भाषा/ जबसे समझने लगा हूँ–

चाहे जिस भाषा में लिखी हो/ मैं बांच सकता हूँ चिट्टी।

अपने अनंत ख़ालीपन में/ वही एक काम किया मैंने

हर तरह के दर्द की डगमग स्‍वरलिपियाँ सीखीं।

मुझमें भी एक आग है

लिखती है जो कुछ कुछ हवा के फटे टुकड़े पर

और फिर उसको मचोड़ कर डालती है टूटी खटिया के नीचे

ये टुकड़े खोल कर कभी-कभी माँ पढ़ती है

और फिर उसके चश्‍में पर जम जाती है धुंध।

(खुरदुरी हथेलियाँ, पृष्‍ठ 171)

– कविता लंबी है ; पर इस एक कविता का प्रभाव अनामिका के रचना कौशल को याद करने के लिए काफ़ी है।

‘खुरदुरी हथेलियाँ’ के बाद ‘दूब-धान’ अनामिका का दूसरा बड़ा पड़ाव है। इसें भी वे कई खंडों में विभाजित करती हैं : जोगिनिया कोठी, पेड़ हरे स्‍तन हैं माँ के, गृहलक्ष्‍मी, बाल भिक्‍खु व माया नगरी, जहाँ हम देख सकते हैं कि वे अपने देखे गए स्‍त्री जगत की तमाम छवियाँ प्रस्‍तुत करती हैं। आम्रपाली, भामती की बेटियाँ, राधा की बेटियाँ जैसी कविताएँ स्‍त्री के ही स्‍वाभिमान का प्रतीक हैं। कहते हैं स्‍त्री के अंतर्जगत में एक स्‍त्री ही प्रवेश कर सकती है। सार्वजनिक चौका की रमावती नाइन के बारे में लिखते हुए जैसे वे उसके ख़ुद्दार चरित्र को भी सम्‍मुख रख देती हैं–

पति एक था उसका, प्रेमी थे पाँच–

बच्‍चे छह, मुर्गी और बकरियाँ सात,

निंदक उसने जितने तारे और प्रशंसक भी बहुत सारे।

फिर भी वह एक़दम अकेली थी

हर रिश्‍ते में, वैसे बालू थी, मिट्टी थी–

लेकिन उसका मन था इतनी ज़िद्दी पौधा

कि कहीं लगता ही नहीं था।

(दूब-धान, सार्वजनिक चौका, पृष्‍ठ 62)

अनामिका की कविताओं में ‘स्‍त्री उपेक्षिता’ का कितना ही सघन परिदृश्‍य है। जलेबा बुआ भी ऐसा ही एक चरित्र हैं जो कंघी के टूटे हुए उलझे बालों की तरह हैं। पर एक नन्‍हीं सी धोबन (चिरैया) कविता का क्‍या ख़ूब निर्वाह हुआ है कि कैसे एक नन्‍हीं जान तुड़मुड़े सपनों पर इस्‍तरी करती है, दुनिया की सलवटें मिटाती है, और उसके ठेले पर गठरी ऐसे रखी है जैसे पृथ्‍वी। गृहलक्ष्‍मी सीरीज की कविताओं में वे स्‍त्री की अंतर्वेदना का भाष्‍य करती हैं। यह भी एक स्‍त्री है जिसका कहना है : ‘मैं कैसेरॉल की अंतिम रोटी हूँ। कैसेरॉल में ही मैं बंद रही हूँ अब तक।’ एक और स्‍त्री उन्‍हें यह कहती हुई मिलती है कि– “मैं इस घर की दुछत्‍ती हूँ– सिर पर उठा रखा है आसमाँ की तरह मुझे इस घर ने। मुझमें है बंद पड़ी एक दीवार घड़ी भी! वो भी हूँ मैं ही। मेरी चाबी ग़ायब है।” एक और स्‍त्री को देखें जो कह रही है–

वो एक उठी हुई उंगली है

मैं एक झुका हुआ माथा हूँ।

… … … …

वो चारमीनार है,

मैं चूड़ीबाज़ार हूँ हैदराबाद का

काँव-काँव किच-किच के बीच भी कहीं कोई

बची हुई झनकार है–

क्‍या ये ही दुनिया का नहीं आठवाँ अचरज?

इतनी मारा मारी है फिर भी

उम्‍मीद है और भरोसा है, रस्‍ते हैं, इंतज़ार है!

(दूब-धान, गृहलक्ष्‍मी-4, पृष्‍ठ 87)

एक स्‍त्री की आवाज़ बताती है–

बिना स्‍याही की कलम

लिखती रही लिखती रही

जिस पेज पर– वो पेज हूँ बेचैन!

गृहलक्ष्‍मी -7 की औरत कहती है–

मैं रोटी बेलती हूँ जैसे पृथ्‍वी।

… … …

सारा शहर चुप है

धुल चुके हैं सारे चौकों के बर्तन

बुझ चुकी है आख़िरी चूल्‍हे की राख

और मैं अपने ही वजूद की आँच के आगे

औचक हड़बड़ी में ख़ुद को ही सानती

ख़ुद को ही गूंधती हुई बार बार

ख़ुश हूँ कि रोटी बेलती हूँ जैसे पृथ्‍वी।

(वही, गृहलक्ष्‍मी-7, पृष्‍ठ 91)

जिन्‍होंने उदय प्रकाश की ‘औरतें’ कविता पढ़ी है वे अनामिका की कविताओं में उस स्‍त्री की अंतर्वेदना को गहराई से महसूस कर सकते हैं जो यह कहती है– हाँ, तुम्‍हारा पिनकुशन हूँ– हर नुकीली बात तुम मेरे हृदय में भोंक कर /फ़ासलों की फाइलें बढ़ाते हुए/ अर्दली से माँगते हो एक ठंडा ग्‍लास। (गृह लक्ष्‍मी 9) वे स्‍त्री के दुखों की टोह लेने चकलाघर की दुपहरिया से बतियाती हैं, पंसारी पर अपने जैसी ग्राहक से नाता जोड़ लेती हैं यह कहते हुए कि ‘पल भर को लगा– उसके उन झुके हुए कंधों से मेरे भन्‍नाए हुए सिर का / बेहद पुराना है बहनापा।’

मनुष्‍य जाति के संघर्ष से कविता का गहरा रिश्‍ता है। जिन मुल्‍कों ने नस्‍लीय संघर्ष, रंगभेद, युद्धों की विभीषिकाओं को झेला है वहाँ की कविता का रंग साँवला है। दक्षिण अफ्रीकी व मध्‍य एशियाई कवयित्रियों की कविताएँ यथार्थ की स्‍याह इबारत का दस्‍तावेज़ हैं। अपने एक वक़्तव्‍य में यह बात अनामिका ने भी स्‍वीकार की है कि “कविता वहीं फलती फूलती है जहाँ राजनीतिक सामाजिक आर्थिक उत्‍पीड़न का इतिहास लंबा हो। एशियाई, अफ्रीकी, लातिन अमरीकी, जर्मन और पोलिश कविताएँ विश्‍व की बेहतरीन कविताएँ शायद इसीलिए हैं कि इन भूखंडों ने झेला-भोगा- सहा बहुत है। स्‍त्रियां– विश्‍व भर की स्‍त्रियाँ एक अलग नवोदित राष्‍ट्र सरीखी धीरे-धीरे जगती हुई उत्‍कृष्‍ट साहित्‍य रच रही हैं और दे रही हैं एक ऐसी दृष्‍टि जिसे सारी सृष्‍टि ही परमाणु के नाभिकीय बंध के भीतर नाचती हुई दिखाई दे।” (अनुष्‍टुप, वक़्तव्‍य से)

थेरी गाथाएँ : चेतना की अबुझ इबारत

‘पानी को सब याद था’– संग्रह की एक कविता में एक स्‍त्री के बहाने अनामिका जो कुछ कहती हैं, वह हमारे अंत:करण को विचलित कर देता है : “मेरा दुख जल्‍दी में ढीली ही बांधी गयी बेडौल गठरी का दुख है। मैं जिसकी पीठ पर लदी हूँ– वह काल भी तो नहीं जानता– मेरी इस अवश पकड़ से फिसल गिरीं कैसे धीरे-धीरे मेरी सारी निधियाँ– नौ सौ नब्‍बे उन भाषाओं की वे लुप्‍तप्राय ध्‍वनियाँ/ बारह ऋतुओं का विलास/ अंत:सत्‍वा चुप्‍पियाँ/ होने न होने के बीच थरथराती हुई कुछ ख़ुशबुएँ।” (पानी को सब याद था, आषाढ़ ) लंबी कविता में यह एक माँ की पीड़ा का इज़हार है। आज का परिदृश्‍य स्‍त्री विमर्श का है। तथापि, उसे स्‍त्री का यों ही रोना-धोना कह कर टाला नहीं जा सकता है। जो देश युद्धों, रंगभेद, और मानवीय त्रासदियों व हिंसाओं से गुज़रे हैं वहाँ की स्‍त्रियों की मनोदशा कविताओं में में छिप नहीं पाती। हाल ही में नासिरा शर्मा अनूदित संपादित अफ्रोएशियाई कविताएँ पढ़ते हुए अनेक स्‍त्री कवियों को इस नज़रिये से देखा जा सकता है। भारत के पूर्वांचल यानी बिहार से ताल्‍लुक़ रखने वाली अनामिका देश के सबसे पिछड़े राज्‍य की स्‍त्रियों के हालात से वाकिफ हैं, तमाम स्‍त्री चरित्रों से मिल कर उनसे बातें की हैं, उनका सुख-दुख जाना है, उनकी इच्‍छाएँ जानी हैं, Ük`aखलाओं में बँधी उनकी नियति को पहचाना है। तभी वे थेरी गाथाओं के माध्‍यम से सभ्‍यता के आदिम छोर से स्‍त्री को पहचानने रचने और उसकी मुक्‍ति का द्वार खटखटाने का यत्‍न किया है।

बौद्ध कालीन ये थेरियाँ आपस में बतियाती हुई उस मुक्‍तिकामी स्‍त्री का पर्याय हैं जो अपनी यातनाओं और विपदाओं को साझा करती हैं। तृष्‍णा थेरी कहती है : ‘मैं आदिम भूख हूँ बेटी, मुझे पहचान रही हो? / दुर्भिक्ष में चूल्हा / फ़कीर की एक आँख सा धंसा / जाँचता है ग़ौर से मुझको, हंसता है! / और अट्टहास की तरह / फैल जाती हूँ मैं हर तरफ़ इस उम्‍मीद के साथ कि कोई नहीं सुनता पर बुद्ध तो सुनेंगे। वे थेरियों से ऐसे बतियाती हैं जैसे कुंवर नारायण बौद्धकालीन अनुवादक विचारक कुमारजीव से बतिया रहे थे। आत्‍मजयी में नचिकेता यम से बात करता है, वाजश्रवा के बहाने में क्षोभ और पछतावे से भरा एक पिता बात करता है। अनामिका सदियों पूर्व की थेरी गाथा में प्रवेश करती हैं तो इस प्रत्‍याशा में कि यहाँ स्‍त्री की आदिम मनोव्‍यथा मिलेगी, मुक्‍ति का द्वार दिखाते बुद्ध मिलेंगे। आख़िर बुद्ध ने ही ऐसी स्‍त्रियों को मैत्रीभाव से अपने संघ में शरण देकर उनके प्रति न्‍याय किया। आज की स्‍त्री को भी कोई न्‍यायिक बुद्ध चाहिए।

कहना न होगा कि अनामिका की थेरियाँ समकालीन स्‍त्रीमुक्‍ति गाथाओं से आँख मिलाती हैं। थेरी गाथाओं के इस वृत्‍तांत में आधुनिक समाज सुधारक आते हैं, राममोहन राय, ईश्वरचंद्र, कार्वे, राणाडे, ज्योतिबा फुले, / पंडित रमाबाई, सावित्री बाई आते हैं और माथा छूकर सहलाते हैं। यहाँ स्‍त्रीमुक्‍ति और स्‍त्रीदशा में सुधार की सदियों की यात्रा जैसे अपनी गाथा प्रस्‍तुत कर रही हो। हिंदी में यदि ‘आत्‍मजयी’, ‘वाजश्रवा के बहाने’, ‘संशय की एक रात’, ‘प्रवाद पर्व’ या ‘अंधायुग’ अपने समय का ज्‍वलंत ग्रंथ बन सके तो इसलिए कि उनमें मिथक को समकालीनता की रोशनी में देखने की कोशिश की गयी। स्‍त्री कविताएँ तो अरसे से लिखी जा रही थीं, लेकिन थेरियों के अतीत में जाकर स्‍त्री मन को टटोलने की यह प्रबंधात्‍मक कोशिश यातनाओं के अँधेरे में गुम स्‍त्री के वुजूद को टटोलना है, उनकी कसमसाती हुई, लालटेन की तरह जलती चेतना को पढ़ना है और यह काम अनामिका ने ‘टोकरी में दिगंत’ में बख़ूबी किया है। जो बात स्‍त्रीविमर्श और स्‍त्री रचनाशीलता के बहुआयामी पाठ आज तक उठाते आ रहे हैं, उनका क्रिटीक इन थेरी गाथाओं के माध्‍यम से अनामिका ने सहज ही संभव किया है।

आख़िर सदियों की सताई ये थेरियाँ ही रही होंगी जिसने अनामिका के स्‍त्री मन को व्‍यथित किया होगा और जो सामान्‍य किरदारों से अलग थेरियों के सामूहिक एकांत और व्‍यथा बोध की ओर खींच लाई होंगी, जिन्‍हें बुद्ध ने दीक्षादीप्‍त कर उनके उत्‍थान का पथ प्रशस्‍त किया। यही वजह है कि अनामिका एक बातचीत में कहती हैं, “यह उन स्‍त्रियों की अभिव्‍यक्‍ति है जो हर तबके, ग्रामीण, पिछड़ी जातियों, आदिवासी समाज के अभावग्रस्‍त क्षेत्रों से संबंध रखती हैं और उनके संवाद में समूचा संसार, उसकी अलग अलग परतें खुलती हैं।” (आउटलुक,5 अप्रैल, 2021)

एक बातचीत में वे कहती हैं कि “एक हल्‍का-सा संतोष इस बात का है कि मेरे भीतर मैं ही नहीं रहती, स्‍त्रियों का एक पूरा गाँव रहता है, एक पूरा कस्‍बा रहता है, एक पूरी विस्‍थापन बस्‍ती रहती है स्‍त्रियों की। जिन स्‍त्रियों से मिल चुकी हूँ पिता जी के पुस्‍तकालय में जो थेरी गाथाएँ मिलीं, सड़क की स्‍त्रियों में जो मुझे किरदार मिले, वर्किंग हास्‍टल में जो स्‍त्रियाँ मिलीं, वे सभी स्‍त्रियाँ मेरे भीतर एक स्‍थायी मुहल्‍ला बना कर रहती हैं। मैं जब लिखने बैठती हूँ तो वही बोलती हैं मैं नहीं बोलती। मैं तो ख़ाली एक पात्र की तरह होती हूँ– एक ठनठने कुएँ की तरह होती हूँ। मैं एक अंधा कुआँ हूँ जिसके भीतर बहुत सी परछाइयाँ रहती हैं और जिससे बहुत सारी अनुगूंजें उठती हैं। जब मैं बोलती हूँ तो मेरे पीछे वे स्‍त्रियाँ बोलती हैं। मुझे लगता है ये परंपरा से आई और वर्तमान समय में संघर्ष कर रही स्‍त्रियाँ बुद्ध से बात कर रही हैं।” वे कहती हैं, “जिस संग्रह को पुरस्‍कार के लिए चुना गया है, वह दरअसल एक काल्‍पनिक संवादों का सिलसिला है जो ये स्‍त्रियाँ अपने मनचीते पुरुष से करती हैं; और कौन है वह मनचीता पुरुष? बुद्ध जैसा प्रज्ञावान धीरोदात्त नायक जो एक दोस्‍त-समाज बनाएगा। एक ऐसा दोस्‍त समाज, जिसमें ऊँच-नीच नहीं होगी, जहाँ मनुष्‍यता की भाषा बोली जाएगी। हम सबके भीतर एक नये बुद्ध रहते हैं। बुद्ध का एक परिवर्धित संस्‍करण रहता है जो यशोधरा को छोड़कर नहीं जाएगा। मगर उतना ही मैत्री भाव से, उसी तरह संचालित होगा जैसा हम सब स्‍त्रियाँ चाहती हैं। हमें एक ऐसा समाज चाहिए जहाँ पुरुष अति पुरुष न हो, ‘माचोमैन’ न हो। स्‍त्रियाँ भी अतिस्‍त्रियाँ न हों। यह जो सम्‍यक होने का भाव है, संतुलन का भाव है, संवाद का भाव है, वही हमारे जनतंत्र का आधार होना चाहिए। पारस्‍परिकता ही हमारी दृष्‍टि का आधार है। मेरी ही नहीं, बहनापे की पूरी दृष्‍टि का। तुमुल कोलाहल कलह में मैं हृदय की बात रे मन। यही कहने की कोशिश की है मैंने। हम अतिरेकों में जीकर बहुत झेल चुके। अब अतिरेक नहीं चाहिए।” अनामिका के स्‍त्री चरित्रों में नासिरा शर्मा की ‘शाल्‍मली’ की छाया दीख पड़ती है जो पुरुष से विग्रह नहीं, संवाद चाहती है, परस्‍परता चाहती है।

अनामिका का कविता संसार स्‍त्री-पुरुषों का मिला जुला संसार है। उनके यहाँ देश दुनिया के हालात पर कविताएँ हैं, भूमंडलीकरण और उदारीकरण की फलश्रुति पर कविताएँ हैं तो जड़ जमाती सांप्रदायिकता पर भी। वे विस्‍थापन बस्‍ती की पद्मिनी नायिकाओं से लेकर बस्‍ती की माँओं और निर्भया तक की तह में जाती हैं। दुनिया भर के स्‍त्री आँदोलनों से अवगत होते हुए भी वे भारतीय परिप्रेक्ष्‍य में स्‍त्री की नियति को निरखती परखती हैं तथा ‘तट पर हूँ पर तटस्‍थ नहीं’ की भाव दशा को जीती हुई कविता को मानवीय प्रयोजनों से विलग नहीं होने देतीं।

इधर के वर्षों में अनामिका के दो संग्रह आए हैं– पानी को सब याद था और बंद रास्‍तों का सफर। एक लंबी यात्रा के उपरांत कविता कवि की इतनी मुँहलगी हो जाती है कि उसका बोल वैशिष्‍ट्य, शिल्‍प, रंगत सब कुछ उसके लिए हस्‍तामलकवत् होता है। अनामिका ने कविता को साध लिया है। यह उनकी साधना और जीवन दर्शन का एक अपरिहार्य अंग बन चुका है, एक सतत संगी जिसके दर्पण में वे इस समाज का बहुवस्‍तुस्‍पर्शी चेहरा निहार लेती हैं।

‘बंद रास्‍तों का सफ़र’ पढ़ते हुए पहले तो बंधे पांवों का सफर याद आया। एक कहानी संग्रह। वह भी मार्मिक कहानियों का संग्रह था और अब अनामिका का वैसा ही समतुल्‍य शीर्षक तो पढ़ते ही लगा एक स्‍त्री लिख रही है तो यह भी स्‍त्री की व्‍यथा कथा होगी। उसी के रास्‍ते पर अड़ंगे लगाए जाते रहे हैं। यह भी हो न हो शिकायत या प्रेक्षण का एक ढंग है। पर पढ़ कर जाना कि यह स्‍त्री कविताओं में स्‍त्री विमर्श तो करती है पर व्‍यर्थ का नहीं। वह भले ही कहे कि पढ़ा गया मुझको जैसे पढ़ा जाता है… लेकिन अनामिका ने अपने अनुभव का आकाश स्‍त्री जीवन की समस्‍याओं पर नहीं अँटका रहने दिया, उसे विस्‍तारधायी बनाया। मध्‍यवर्गीयों वाली शिकायती मुद्रा की उन्‍हें कविता में लत नहीं लगी जैसा तमाम कवयित्रियों को है। उनकी कविता का समाज बहुत विस्‍तृत है। उसमें कलरव है, जनरव है, बतकहियाँ हैं, मोबाइल पर बहनापे को जीने वाली स्‍त्रियाँ हैं, कश्‍मीरियत में पनपती अलगाववादी-आतंकवादी शक्‍तियों के बीच संवादमुखी दुनिया है तो तमाम तरह की संकीर्णताओं के विरुद्ध उस स्‍त्री दृष्‍टि को स्‍त्री लेंस से समझने बूझने की एक कोशिश भी जो उनके ही शब्‍दों में, ‘चौथे दशक में विनिवेशीकरण, पाँचवें-छठे दशक में नि:शस्‍त्रीकरण, सातवें में अपारथाइड या रंगभेद नीति, आठवें में पर्यावरण संरक्षण, नवें में आतंकियों का हाइपर मैस्‍कुलाइजेशन यानी अतिमर्दवाद को चुनौती के रूप में लेती है।

 

अनामिका की कविताएँ ब्रेबिटी में सांस नहीं लेतीं; वे संवादप्रियता की टकसाल में ढली लगती हैं। इतनी विस्‍तार वाली कविताएँ पढ़ने की आदत कम हो चली है। बहुधा तो ऐसी कविताएँ बोर करती हैं पर अनामिका या ज्ञानेन्‍द्रपति की कविताएँ लंबी होने के बावजूद अपने कवि-कौशल से बीच-बीच में संभाल लेती हैं क्‍योंकि वे संवादमुखी हैं, अंतर्मुखी नहीं, वहाँ निर्मलवर्माई सन्‍नाटे का स्‍थापत्‍य नहीं, बोलचाल की जगहट है। जो अनामिका से मिलते जुलते हैं उनके लिए यह उनका सहज सुभाव है। जो नहीं मिलते या मिले उन्‍हें इन कविताओं में एक बहुविध बोलता हुआ संसार दिखाई देगा। एक ऐसी चिंतातुर स्‍त्री दिखाई देगी जो कच्‍चे खेतों की नींद सोना चाहती है, जिसका अकेलापन उसके नाखून की तरह बढ़ता दिखता है, जो आसिफा की चीखों को दुखों की वर्णमाला की तरह पढ़ती है जिसे मंदिर के हनुमान भी न बचा सके। जो खुसरो की मजार पर बैठी स्‍त्रियों को देख अनुमान लगाती है कि हो न हो खुसरो ने इन्‍हीं औरतों से मुकरियों की भाषा सीखी होगी।

कितना अपूर्व है कवयित्री का ‘दूध की लाज’ पर कविता लिखते हुए इस मुहावरे से होकर गुज़रना और यह कहना उसका अपनी माटी की हर उस भाषाई गंध से होकर गुज़रना है कि “दूध की लाज अगर रखनी ही हो तो ब्रजभाषा-अवधी और छत्‍तीसगढ़ी, बज्‍जिका-मैथिली-अंगिका-मगही-भोजपुरी, कुमाउंनी, गढवाली जैसी पचपन मिष्‍टीमुख भाषाओं की भी रखनी होगी मुझे लाज/ क्‍योंकि मेरे खून में धार सबकी है, भाषाएँ, नदियाँ और औरतें बहती हैं सदा ही गले मिलके, जानती हैं निभाना रिश्‍ते– दूध के हों,रूह के या लहू के!” (बंद रास्‍तों का सफर/ दूध की लाज)

इससे पहले वाला संग्रह– पानी को सब याद था– पढ़ चुका हूँ– कभी सरसरी निगाह से कभी गहरे धंस कर। पर यह संग्रह पता नहीं क्‍यों उससे बेहतर लग रहा। कुछ है मन का जिसे पाना कविता में अभीष्‍ट मानता हूँ। विस्‍तार के बावजूद अनामिका की संवेदना हवा की तरह छू कर निकल नहीं जाती है या उनका गुस्‍सा कपूर की तरह जल कर बिखर नहीं जाता, बल्‍कि वह अपने साथ बहाये लिए चलता है। यहाँ तक कि उनके नैरेटिव के साथ बहता चला जाता हूँ। बिना किसी शिकायत के या वह कि जिसे लिखने वाला था, नहीं लिख रहा अब। यह कि जानता हूँ रसोई सब दिन एक समान नहीं बनती गो कि हाथ वही होते हैं, संसाधन वही होते हैं। वह कभी कभी बनती है, जैसे कविता। यह सोच रहा होता हूँ कि ‘बंद रास्‍तों का सफर’ की एक कविता का यह अंश हठात रोक लेता है मुझे। बाँह छुड़ाए जात हौ वाली शिकायत के साथ – और उसे यह कहते-लिखते हुए –

बचकाना उम्‍मीदों की कोई क्‍यू लेकर

तुम मेरे पास नहीं आए

और इस तरह भी भरी-पूरी

इस दुनिया की कोई औरत नहीं होगी

जैसी सिटी बस होती है।

थोड़ा-थोड़ा-सा अकेलापन

हर रिश्‍ता देता है–

हर रिश्‍ता देता है

थोड़ी-थोड़ी-सी

हताशा-तिरस्‍कार

बाँकी-तिरछी अम्‍लवर्षा,

एक घुमड़ती हुई-सी वीरानी,

थोड़ा-सा खालीपन!

(वही/ वार्धक्‍य में प्रेम की दस्‍तक, पृष्‍ठ 129)

पर अनामिका के यहाँ अब कविता शब्‍दों में होते हुए भी अंतर्ध्‍वनियों और प्रतीतियों में बजती है। जैसे चौक-चौराहों, आंगन-चौबारों और चाय की ठीहों तक की खनक पूरी ऊष्‍मा के साथ मौजूद है। क्‍या ही बात है कि जब वे ‘केतली’ पर कविता लिखती हैं तो उनका कहना कि ‘अब भी चाय आपसदारी की लय में ही पी जाती है और धीमी चुस्‍कियों में ही जी ली जाती है/ जिन्‍दगी – चाहे वह जैसी भी हो (पानी को सब याद था, पृष्‍ठ 37) तो जैसे हर अमीर गरीब के बीच चाय की चुस्‍कियों को जैसे मन ही मन तौल ही लेती हैं। इसी संग्रह में जब वे सुभद्रा कुमारी चौहान और घनानंद पर लिखती हैं तो जैसे कवि परंपरा का अनुधावन कर रही होती हैं और क्षिति जलपावक, अमरफल, पूर्णमिदम्, उसने कहा था, सांत्‍वना पुरस्‍कार, आषाढ़, भादों पढ़ते हुए उनकी कविता की व्‍यापक रेंज का पता चलता है जहाँ वे जीवन दर्शन को ऊन के स्‍वेटर की तरह बुन रही होती हैं। संग्रह निर्भया पर खत्‍म होता है, लेकिन यह कविता कवि की चेतना में पोयटिक जस्‍टिस की तरह धक धक करती है। ‘आषाढ़’ पर लिखते हुए वे कहती हैं, मेरा दुख जल्‍दी में ढीली में बांधी गई बेडौल गठरी का दुख है। किस मनोयोग से वे मानवीय निधियों, भाषाओं की लुप्‍तप्राय ध्‍वनियों, अंत:सत्‍वा चुप्‍पियों, थरथराती खुशबुओं, बदरंग स्‍वेटर सी जिन्‍दगी की व्‍यथा बाँचती हैं, उनकी कविताएँ बताती हैं।

वे जब समाज में दुख की प्रजातियाँ तलाशती हैं तो पाती हैं कि एक दुख अंधों का, दूसरा उन आईनों का जो अंधों की बस्‍ती में पड़े रह गए धूल खाते। पूरी कविता पुरलुत्‍फ अंदाज़ में है जिसका अंदाज़ ए बयाँ अनामिका का अपना अंदाजए बयाँ है जो हर कविता में बारीकी से अनुस्‍यूत रहता है, उनके अभ्‍यस्‍त और प्रिय पाठक उन्‍हें वहीं पकड़ लेते हैं। इस तरह अनामिका का काव्‍य संसार इतना प्रशस्‍त, प्रसन्‍नमुख, बोलता हुआ है कि जन जीवन की कौन सी आभा है जो इनमें न झलकती हो। मैं फिर कहना चाहूँगा कि ये कविताएँ समकालीन कविताओं में छाये अमूर्तन और उक्‍तिवैचित्र्य के सापेक्ष कथोकथनों, चुटीले संवादों में घटित होती हैं जहाँ चुटीली चुटपुटिया बटन की आवाज भी ठीक-ठीक सुनाई देती है।

अनामिका समकालीन कविता में नवें दशक की उपज हैं। उनकी कविता में जो बात स्‍पष्‍ट दीखती है वह है उनका भाषाई खुलापन जो अपने प्रयोगों में तद्भव, देशज, गँवई व बोलचाल के अनेक शब्‍द इस्‍तेमाल करता है। हुलुर मुलुर, तुतमलंगा, भटकोइएँ, भितरघुन्‍ने, भकजोगार, खुदुर बुदुर, अगरधत्त, उजबुजाती जैसी आँचलिकता उनके भाषाई व्‍यवहार का हिस्‍सा है। कभी-कभी लगता है ऐसे अटपटे शब्‍द वे जानबूझ कर लाती हैं पर यही उनका उक्‍तिवैशिष्‍ट्य है। समकालीन कवियों व कवयित्रियों में आज जो चाकचिक्‍य या सुगठित किस्‍म का स्‍थापत्‍य दिखता है, उसके विपरीत अनामिका की कविताएँ खुरदुरी, अनगढ़ और कहीं कहीं कुछ अटपटी भी लगती हैं पर वे कथ्‍य वैशिष्‍ट्य की धनी हैं, उनका बोल वैशिष्‍ट्य अन्‍यों से अलग है तथा उनसे गुज़रते हुए लगता है हम आँचलिक भाषा में मँजे किसी कवि के सम्‍मुख हैं और भारत के अंत:करण की झाँकी से गुज़र रहे हैं। इसीलिए शायद कविवर कुंवर नारायण ने अपनी कृति ‘रुख़’ में कहा है कि ‘इन कविताओं की पृष्‍ठभूमि में आँचलिक उपन्‍यास की तकनीक झलकती रहती है, जिसमें अनामिका आज के नारी मन को शब्‍द देती हैं।’

ओम निश्चल 

 

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