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‘हिलोर’ मन के भीतर बसे हुए बचपन के गाँव के कान उमेठ कहती है कि ‘कहो तो! सादे- शफ़्फ़ाफ़ आवरण में छुपे तुम अपने कुटिल-कुचाली अंतरतम को चीन्हते हो ? पहचानते हो क्या सदियों पुरानी परम्परा के चोले में साँस ले रहे, आजी-नानी,बाबा-भाई, पिता-ताऊ के झुर्रियों में बसे उस कुत्सित रीति -रिवाज को जो आज भी कई -कई किशोरियों के कोमल पैरों की जंजीर और सुकोमल सपनों पर साँकल बन कसा है ?
इस कहानी संग्रह ‘हिलोर ‘ की पच्चीस अपरूप आपबीती पूर्वी उत्तरप्रदेश के फैजाबाद जिले के तारुन ब्लॉक की उन पच्चीस लड़कियों की व्यथा-कथा है जिसे जीते- भोगते हुए उन्होंने जीत की अद्भुत पटकथा लिखी।आसान नहीं था पितृसत्तात्मक चुनौतियों से पार पाना।सहज नहीं था अपने ही पिता,माता,दादी-दादा और भाई से लड़कर सपने देखना और उन्हें सच कर दिखाना।जो लोग गाँव में नहीं रहते वे इन लड़कियों की कहानियों को पढ़ते हुए अचरज में पड़ जाएंगे कि ,ओह कितना निष्ठुर और अमानवीय परिवेश है गाँव का ! जहाँ लड़कियों के पैदा होने पर मातम मनाते लोग उनकी छोटी- छोटी इच्छाओं को कुचल फेंकते हैं।जीन्स पहनने की इच्छा,गाना गाने की इच्छा,स्कूल जाने का मूलभूत अधिकार, भरपेट खाने का ,भरहिक जीने का और अपने ही दुआर- दालान, छत -छज्जे, गाँव-सिवान घूम -टहल आने या कि खेल -कूद आने की हसरत घर के बड़े-बुजुर्गों की मुट्ठी में क़ैद है। वे अपनी इन पिंजरे की चिरैयों के पंख करतने को तैयार हैं पर उड़ान के लिए संवरने-सँवारने के बिल्कुल खिलाफ़। लड़कियाँ अपने ही सगे -संबंधियों की लगाई पाबंदियों से परेशान हैं, तड़प-तलफ रही हैं ,मुक्ति की याचना में प्रार्थनारत हैं।उन्हें दूर -दूर तक कोई मददगार नहीं दीखता कि तभी उनके गाँव में ‘ पानी ‘ (People’s Action for National Integration ) संस्था अपना रिसोर्स सेन्टर खोलती है और इसकी स्वयं सेवी भैया और दीदी लोगों से मदद पाकर ये लड़कियाँ घरवालों के घोर विरोध के बावजूद अपने सपनों को साकार करने की ओर बढ़ चलती हैं।
इनके अकूत संघर्ष, जिजीविषा,अदम्य साहस व अथक परिश्रम की कथाएँ इन्हीं के बीच बैठकर, सुनकर बहुत ही संजीदगी से, आत्मीयता से अंग्रेजी भाषा में लिपिबद्ध किया है रेखा सलीला नायर ने और हिंदी भाषा में इसे अनूदित करके सर्वसुलभ किया है डॉ .प्राची सिंह ने।
- डॉ सुमन सिंह