पुस्तक समीक्षा
– बिंदिया रैना तिक्कू
मुनव्वर राना की शायरी का परिचय कराना सूरज को दीप दिखाने जैसा है। उनकी कलम से निकली हर पंक्ति आम जीवन की सच्चाइयों, मानवीय भावनाओं और रिश्तों की गहराई से भीगकर आती है। ‘ग़ज़ल में आपबीती’ इस दृष्टि से न केवल एक शायर की आत्मकथा है, बल्कि एक संवेदनशील समय का दस्तावेज़ भी है। इस संग्रह की विशेषता इसकी सादगी और सहजता है। मुनव्वर राना ने अपनी ग़ज़लों में कठिन अरबी-फारसी शब्दों के बजाय हिंदुस्तानी ज़बान को चुना है, जो आम पाठकों के दिल तक पहुँचना जानती है। उनकी ग़ज़लें बोलती हैं, बहती हैं और कभी-कभी भीतर ही भीतर रुला भी देती हैं।
संपादक ओम निश्चल जी लिखते हैं, “राना की शायरी मनोरंजन का सामान नहीं है। उसमें दिली जज़्बात और दुनियावी हक़ीक़तों का सत्व समाया है। उनकी भाषा में कथ्य इस तरह कूट-कूट कर समाया है कि वह एक चुम्बकीय रसायन में बदल गया है। अनुभूति के उच्चतम शिखर पर पहुँच कर ही कोई शायर यह लिख सकता है– ‘घर में रह के भी ग़ैरों की तरह होती हैं। बेटियाँ धान के पौधों की तरह होती हैं।’ मुनव्वर राना के भीतर एक सूफ़ियाना तेवर भी है जो बड़ी से बड़ी सल्तनत को भी घास नहीं डालता और यही कहता है: ‘बस तेरी मोहब्बत में चला आया हूँ वरना / यूँ सबके बुलालेने से राना नहीं आता।’ राना की शायरी पर जितना कहा जाए, कम है। इंसानी जज़्बात, समाज और सत्ता की हर हरक़त को अपनी ग़ज़लों के इस्पात में ढाल लेने में हुनरमंद राना यों ही नहीं कहते, यह हक़ीक़त भी है:
ग़ज़ल की सल्तनत पर आज तक क़ब्ज़ा हमारा है
हम अपने नाम के आगे अभी राना लगाते हैं”
‘ग़ज़ल में आपबीती’ केवल प्रेम, विरह या सियासत की बातें नहीं करती, यह शायर के जीवन के उतार-चढ़ाव, संघर्ष और अंदरूनी टूटन का बयान भी है। राना साहब ने जिस तरह व्यक्तिगत अनुभवों को ग़ज़ल की जमीन पर बोया है, वह दुर्लभ है। इस संग्रह को पढ़ते हुए ऐसा लगता है कि हम किसी आत्मीय व्यक्ति की डायरी पढ़ रहे हों, जिसमें भावनाएँ ध्वनि की लहरों की तरह आती-जाती हैं।
संग्रह के कुछ ग़ज़लों में राना साहब की बेचैनी भी झलकती है—देश, धर्म, और इंसानियत के सवालों को लेकर। लेकिन उनका विरोध भी कविता के माध्यम से है—नफरत का जवाब मुहब्बत से, हिंसा का प्रतिरोध शब्दों से। उन्होंने कभी भाषण नहीं दिया, मगर उनके शेर आज भी नारे की तरह गूंजते हैं।
अजब दुनिया है नाशायर यहाँ पर सर उठाते हैं
जो शायर हैं वो महफ़िल में दरी-चादर उठाते हैं
तुम्हारे शहर में मय्यत को सब काँधा नहीं देते
हमारे गाँव में छप्पर भी सब मिल कर उठाते हैं
संग्रह में 100 ग़ज़लों के साथ ही अंत में ‘मुहाजिरनामा’ के चंद अशआरों के साथ-साथ एक साक्षात्कार भी रखा गया है । इस संग्रह को इस तरह क्रमबद्ध किया गया है कि पाठक रचनात्मक यात्रा में शामिल होता चला जाता है। शुरुआत में रूमानी एहसास हैं, मध्य भाग में पारिवारिक और सामाजिक गहराइयाँ, और अंत में जीवन-दर्शन की परिपक्वता दिखाई देती है। सर्वभाषा ग़ज़ल सीरीज़ के अंतर्गत इस पुस्तक का प्रकाशन यह भी दर्शाता है कि ग़ज़ल अब केवल उर्दू तक सीमित नहीं रही, बल्कि हिंदी में भी वह पूरी गरिमा के साथ फल-फूल रही है।
‘ग़ज़ल में आपबीती’ एक ऐसा संग्रह है जो न केवल ग़ज़ल-प्रेमियों को रुचेगा, बल्कि उन्हें भी छू जाएगा जो कविता की ज़मीन पर पहली बार क़दम रख रहे हैं। यह किताब एक शायर की आत्मा से निकली पुकार है, जिसे सुनने के बाद पाठक भी भीतर से कुछ न कुछ कहने को मजबूर हो जाता है। यह संग्रह शायरी में संवेदना की पुनर्परिभाषा है, और मुनव्वर राना उसके सबसे प्रभावशाली कलमकार हैं।
यदि आप ग़ज़ल की दुनिया में सच्ची, मार्मिक और साफगोई से भरी आवाज़ की तलाश में हैं, तो ‘ग़ज़ल में आपबीती’ ज़रूर पढ़िए। यह केवल शेरों का संग्रह नहीं, यह एक शायर का आत्मिक बयान है।
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पुस्तक समीक्षा: ‘ग़ज़ल में आपबीती’
प्रकाशक: सर्वभाषा प्रकाशन
श्रेणी: ग़ज़ल संग्रह
शायर : मुनव्वर राना
संपादक : ओम निश्चल
प्रकाशन श्रृंखला: सर्वभाषा ग़ज़ल सीरीज़
मूल्य : 199
अमेज़न लिंक – https://www.amazon.in/dp/8119208463