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हमने अपनी चाय बनाई दिल को हमने साज़ किया
इक मीठी सी धुन से हमने सुब्ह का फिर आगाज़ किया
सुबह टहलने निकले देखा पूरी घाटी जाग उठी
हुई गुफ्तगू फिर किरणों से ऐसे दिन आबाद किया
कुछ अरसे से मन भी जैसे अपने में डूबा सा था
इक्का दुक्का लोग खड़े थे लोगों से संवाद किया
आवाजाही इस जीवन में बेशक बहुत जरूरी है
बहुत देर तक कहीं ठहरना दिल ने कब स्वीकार किया
कुदरत सदा यही कहती है देखो जितना देख सको
दो पल के इस वक्फे को भी अब तक क्यों बर्बाद किया
बहुत कुलांचे भरता है मन चुप रहता है कभी-कभी
कभी-कभी इस मन की खातिर दुनिया को नाराज़ किया
- ओम निश्चल