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ई सावन के झीसी
जइसे केहू दाबत होखे
परफ्यूम के सीसी
आ करत होखे जुगत
मँहकावे के
धरती रानी के गतर-गतर।
ई मातल बादर
जइसे मखमल चादर
ओढ़ले होखे धरती
धानी धन बचावे के
आ ई देख के कवनो रागिनी
मचलत होखे
गावे के
गीत कवनो प्रेम के।
जेठ के झनकल माटी
तुरि के सगरो परिपाटी
तैयार होखे मिलन के
बेकल आसमान से
दूर करे ला
बरिसन के बिरह व्यथा
बनि के सद्यःस्नात।
जब प्रकृति बा
अइसन तैयार
तब मनई काहें बइठे
मन मारि?
सावन में त
धूर भरल
भाँग-फूल-पतइयो
हो जाला पावन।
केशव मोहन पाण्डेय