मेरी कविता-1
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अगर कविता नहीं होती
तो बिखर गया होता
अनगिनत बार
तिनका-तिनका,
जैसे बिखरता है घोसला
छोटे पेड़ों से
आँधी आने के बाद।
अगर कविता नहीं होती
तो बह गया होता मैं
जाने कब का
विजन-वन-अलक्ष्य में कहीं,
जैसे बहती है मिट्टी
बाढ़ में
बार बार।
अगर कविता नहीं होती
तो झड़ गया होता
पीत-पर्ण की तरह
रोज के पतझड़ में
मैं कब का।
कविता
ऑक्सीजन है मेरे लिए
मेरी हरीतिमा का कारण भी,
बाँध है
शील की
शालीनता की
समय के बाढ़ से बचाव की,
जड़ है
जो कस देती है मिट्टी को
भीतर मेरे
और नहीं बिखर पाता तिनका
मेरे घरौंदे का।
कविता है
तो चहक है
उदास जीवन में भी
मोगरे, गुलाब, चमेली की महक है
कविता श्वास-प्रतिश्वास है
कविता है तो
हर हाल में
जीने का विश्वास है।
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मेरी कविता – 2
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लाख चाहने पर भी
घर नहीं ला पाता
खुशियाँ एक छटाक भी जब
मरहम बनकर सहलाती है
कविता तब
मेरे घाव को।
चलते चलते जीवन-पथ पर
छला जाता हूँ जो कभी
किसी साथी से कही
देती है नव-गति हमेशा
कविता ही तो
मेरे पाँव को।
देखते देखते सूने द्वार को
नहीं बुलावा आता माँ का
कभी किसी भी हाल में अब
तब कर देती आयास ही छाया
ममता-सिक्त आँचल का अपने
कविता मेरे भाल पर।
ढोते ढोते रिश्ते-नातों को
बंजर होने लगती भावना
संबंधों की सजग धरा पर
असहज हो जाता मेरा मन
उगते बीहड़ नागफनी का
बहुत डराते हैं आँखों को
तब भी तो नहीं देते तर्जनी
कभी किसी भी बहाने अब
तब देती है सम्बल कविता
पिता अचानक आपके जैसे।
सदा संगिनी यह कविता है
मेरा बचपन
मेरा बेटा
बेटी की किलकारी कविता
सारा कुनबा
गाँव-शहर सब
मेरी कविता धरा मात्र है
बंधु-बांधव सबको बनाती
ललक है रखती कहते रहने की
शेष आस अच्छा कहने की
और पलटकर देख के जाना
कविता
प्रियतमा के विदा का क्षण है।
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मेरी कविता – 3
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मेरी कविता
सप्तपदी में साथ
प्रियतमा का
मेरी कविता
धरती का धैर्ययुक्त
भाव क्षमा का
मुँह से गिर जाने पर
टॉफी के
ललचता मन
बचपन का
आँखों में बसा
मधुरिम स्वप्न सा
समृद्ध गाँव
जीवन का
खिली किलकारी अधरों पर
माँ का गोद पाकर जब
उस शिशु के रूप जैसी है
मेरी कविता का
सुकोमल मन
लुटाकर सारा धन-दौलत
उन्नत मस्तक है योद्धा का
मेरी कविता भी देती है
सदा ही चैन
दिल को वह।
मेरी कविता
जो तेरे मन को
कभी कर देती झंकृत है
कभी बैठी सिरहाने को
सहलाती मस्तक है
मेरी कविता मचाती है
भयंकर उथल-पुथल दिल में
लगाकर सीने से कभी
अंकित कर दे चुम्बन को
मेरी कविता में ममता है
मेरी कविता में समता है
मेरी कविता सदा सदया
जैसे अनुराग की वेणी।
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मेरी कविता -4
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अगर कविता नहीं होती
तो बिखर गया होता
अनगिनत बार
तिनका-तिनका,
जैसे बिखरता है घोसला
छोटे पेड़ों से
आँधी आने के बाद।
अगर कविता नहीं होती
तो बह गया होता मैं
जाने कब का
विजन-वन-अलक्ष्य में कहीं,
जैसे बहती है मिट्टी
बाढ़ में
बार बार।
अगर कविता नहीं होती
तो झड़ गया होता
पीत-पर्ण की तरह
रोज के पतझड़ में
मैं कब का।
कविता
ऑक्सीजन है मेरे लिए
मेरी हरीतिमा का कारण भी,
बाँध है
शील की
शालीनता की
समय के बाढ़ से बचाव की,
जड़ है
जो कस देती है मिट्टी को
भीतर मेरे
और नहीं बिखर पाता तिनका
मेरे घरौंदे का।
कविता है
तो चहक है
उदास जीवन में भी
मोगरे, गुलाब, चमेली की महक है
कविता श्वास-प्रतिश्वास है
कविता है तो
हर हाल में
जीने का विश्वास है।
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– केशव मोहन पाण्डेय