कला

वेदों की ऋचाओं में मैं
पुराणों की कथाओं में मैं
शास्त्रों के श्लोकों में मैं
रामायण की चौपाईयों में मैं
दोहों में मैं
भगवद गीत के उपदेशों में मैं
इतिहास की गाथाओं में मैं

नाद है मेरी सृष्टि
करती मैं जीवन वृष्टि
विभिन्न कालों की संस्कृति में लिपटी
रंगो में मैं हूँ दिखती
भावों से मेरी उत्पत्ति
रसों की मुझसे निष्पत्ति

सृष्टि का मैं शृंगार
शिल्प, चित्र, गीत, संगीत, नृत्य, नाट्य मेरे उपहार
त्यौहारों का पहनती हार
परम्पराएँ वक्षस्थल पर झूलती
सभ्यता की इन्द्रधनुषी ओढ़नी ओढ़ती

भारत भूमि मेरा बिछावना
भिन्न-भिन्न वाद्ययंत्रों से मेरा निकलना
वेद ऋचाएँ मेरा गहना
सुर, राग, लम, ताल, गति, गमक में रहना
मैं देवों की पूजा-अर्चना

समाज की संस्कृति से बाँधे रखना
है मेरा दायित्त्व
भाषाओं बोलियों का मुझसे ही अस्तित्त्व
आचार, विचार, संस्कार मुझसे ही निस्सृत
मैं भारत का करती गुणगान

मैं पूर्ण हूँ
मैं पावन हूँ
हूँ मैं सम्मान

मैं जीवन हूँ
दर्शन हूँ
मैं सूजन हूँ
चिन्तन हूँ

मैं दृष्टि में हूँ
मैं कल्पना में भी हूँ
मेरा वास्तविक अस्तित्व भी है
मैं ही सृष्टि हूँ

मैं विद्यार्थीयों का अध्ययन हूँ
मैं शिक्षकों का अध्यापन हूँ
मैं युगों का अध्याय हूँ
मैं जीवन का अध्यात्म हूँ

राम की बारह कलाएँ
कृष्ण की सोलह कलाएँ
चन्द्र की घटती बढ़ती कलाएँ
ब्रह्माण्ड की अपार शक्तिओं की असंख्य कलाएँ

मैं कला की कलाएँ
मैं कलाओं की कला
मैं कला।

  • अखिलेंद्र मिश्र 

Related posts

Leave a Comment