कब्रिस्तान के बगल वाली लड़की

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कब्रिस्तान के बगल वाली लड़की

चुलबुली सी

प्यारी सी

खनकती हँसी के संग

इधर – उधर

तितलियों सी मंडराती

सबको हंसाती , हंसती

किलोलें भरती हंसिनी सी .

 

वहां उसका होना

रोज एक नयी  कहानी

की भूमिका गढ़ जाता है

दे जाता है कथानक

किसी उपन्यासकार को

भावभूमि किसी कवि को.

 

वो लड़की किसी दिन

जब होती है उदास

रुक जाता पत्तियों का

हिलना – डुलना

पक्षियों का कलरव

लहरों का तरंगायन

पास वाले तालाब में भी .

 

कभी जब ओ लड़की रोती

सुबह सारी पगडंडी

भींगी भींगी मिलती

कब्रिस्तान में मिलता

गहराया  सन्नाटा

अनचाहा , अनायास

 

सभी मानते थे उसको अपना

वो भी ऐसे लगता था

कि किसी की बेटी है

किसी  की बहन है

और किसी की प्रेयसी

प्यार और मनुहार

उसके गहने जो हैं .

 

जब बहुत दिनों से

दिखी नहीं वह

कब्रिस्तान के बगल वाली लड़की

माथे पर सिलवटें

आ गयीं

आँखे भींग गयी

अपनों की भी

उसके अपनों की भी

बड़ी प्यारी थी जो .

 

 

  • जयशंकर प्रसाद द्विवेदी

 

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