सदियों से अंधे पीस रहे हैं, कुत्ते खा रहे हैं। इतना पीस रहे हैं और इतना खा रहे हैं कि मुहावरा बन गया। अपने देश में किसी के सामने प्रश्न है कि क्या खाएँ तो किसी के सामने कि क्या-क्या खाएँ? वैसे खाने का पर्याय रोटी है, जिसके लिए आटा जरूरी है। पहले अनाज पीसकर आटा बनाया जाता था, आज कुछ भी पीसकर आटा बनाया जा रहा है। अनाज की रोटी उतनी स्वास्थ्यवर्धक नहीं है, जितनी ‘कुछ भी’ की। लिहाजा प्रयास है कि कुछ भी पीस दिया जाए।
पिसाई बहुत पुरानी विधा है। अंधे पीसने के अभ्यस्त हैं तो कुत्ते खाने में निष्णात। अंधों की पिसाई और कुत्तों की खवाई पिछले सत्तर सालों में ढंग से बढ़ी है। अच्छा यही है कि अब पीसने वाले भी अपने हैं और खाने वाले भी अपने। आजादी के पहले पीसने वाले अपने थे, खाने वाले पराये। खाने वाले कुत्तों का रंग लकदक गोरा था। तब पीसने वाले अंधों की संख्या भी कम थी। जो अपने को आँखवाला मानकर पीसने से इन्कार कर देता था, उसे वे अंधा बना देते थे। कुछ ने तो गांधारी की तरह पट्टी बाँध लेना स्वीकार कर लिया था।
जब सफेद कुत्ते जाने लगे तो पीसने वाले अंधे बहुत चिंतित हुए। इतनी मेहनत से बिना देखे-समझे पीसे जा रहे थे, अब कौन पिसवाएगा और कौन खाएगा? सफेद कुत्तों के पास बहुत दिमाग था। वे हर समस्या का हल जानते थे और अगले जन्म तक की योजना बनाकर चलते थे। वे अंधों को बताते गए कि ऐसी व्यवस्था बनाकर जा रहे हैं कि अंधे सरकारी काम के बहाने सरकारी संरक्षण में पलेंगे। उन्हें लगातार पीसते रहने की नौकरी से कोई हटा नहीं पाएगा। अंधों को चिंता हुई कि लगातार पीसने से बहुत ज्यादा आटा उत्पादित हो जाएगा। सफेद कुत्तों ने समझाया कि ऐसा नहीं होगा। व्यवस्था ऐसी होगी जिसमें पीसना कम और दिखाना ज्यादा होगा। वे चाहेंगे तो बिना अनाज डाले खाली चक्की भी चलाते रह सकेंगे। अनाज डालना तभी जरूरी होगा, जब किसी अपने कुत्ते को खिलाना हो।
फिर भी अंधा तो अंधा है। उसके लिए नेत्रहीन होना कोई जरूरी नहीं। सफल अंधा वही है, जो देखकर भी न देखे। अंधों की पिसाई में एक अच्छाई यह है कि उनकी चक्की में अनाज कोई अन्य भी डाल सकता है। मशीन से वे दूर रहना चाहते हैं, इसलिए अभी पुरानी हथचक्की को पकड़े बैठे हैं। चक्की में गेहूँ, ज्वार, बाजरा, रोड़ी या रेत क्या डाला जा रहा है, उनको इससे मतलब नहीं। उन्हें तो बस पीसना है। पीसने की आवाज आनी चाहिए। आटा नहीं निकलेगा तो कुत्ते खुद शोर मचाएँगे।
इधर अंधों की चक्की में साहित्य, संगीत, कला और राजनीति सब कुछ पीसा जा रहा है। इन चक्कियों में न जाने कितने अंधे पीसते-पीसते मर जा रहे हैं, लेकिन खाने वाले कुत्तों का पेट भर ही नहीं रहा है। खा रहे हैं और भूँक रहे हैं। आटा अंधे का है, लग रहा कुत्ते को है। पिष्टपेषणम् का भी धंधा जोरों पर है। पिसते-पिसते आटा खत्म हो जा रहा है, लेकिन पिसाई चलती जा रही है।
खाने वाले कुत्तों की हैसियत अब बढ़ गई है। ढंग के कुत्ते बड़ी-बड़ी गाड़ियों में चलने लगे हैं, बंगलों में रहने लगे हैं और अविवाहिता होकर विवाहित एवं विवाहिता होकर पतिरहित अर्धावृत्त अंगनाओं की गोद में खेल रहे हैं। वे तो ऐसे आटे पर थू करते, लेकिन ‘अंधाचक्की आटा’ उद्योग की शक्ल ले चुका है। प्रत्यक्ष नहीं तो परोक्ष आटा खाना ही पड़ता है। सो अंधे, आटे और कुत्ते का प्रेम त्रिकोण बना हुआ है। चक्की चल रही है, अंधा पीसे जा रहा है, कुत्ता खाए जा रहा है।
चूँकि अंधा देख नहीं पा रहा है या देखना नहीं चाहता, इसलिए कुत्ता खाए जा रहा है। दोनों ही खुश। कुत्ते को अंधा पसंद होगा। उसके लिए वह ईश्वर से प्रार्थना कर रहा होगा। चाहता होगा कि जब भी जन्म हो, उसे अंधा ही मिले। चक्की मालिक पता नहीं कहाँ मर लिया है? शायद वह भी खुश होगा कि अंधे को ड्यूटी पर लगा रखा है। पिसाई कम देनी पड़ेगी या नहीं देनी पड़ेगी। चक्की महकमे में शायद आँखों की जरूरत न हो। जब एक जैसा काम सबको करना है और हमेशा एक जैसा ही करना है तो क्या आँख, क्या बिना आँख!
अंधे और कुत्तेवाली व्यवस्था ने जोर पकड़ लिया है। अंधों की भरती चालू है। दो-चार सवाल पूछ लिया और अंधे को नियुक्तिपत्र जारी कर दिया। सब कुछ याददाश्त और लीक पर ही चलना है तो आँखवाले को परवाना देकर पंगा क्यों लेना? पिसाई में करना ही क्या है, एक जगह जमकर बैठ जाओ और चक्की का हत्था पकड़कर घुमाते रहो। अब तो यह योगाभ्यास में भी आ गया है। योग करने से आदमी वैसे ही पवित्र हो जाता है। फिर जहाँ अंधा होगा, वहाँ कुत्ता पहुँच ही जाएगा।
गलती कुत्ते की ही नहीं है। अंधे का सहारा उसके सामने पूँछ हिलाने वाले कुत्ते के अलावा दूसरा कोई है नहीं। कोई-न-कोई पूँछ हिलाने वाला तो चाहिए ही साथ में। अब अगर चेहरे पर आँखें नहीं होतीं तो शायद कोई हाथ पकड़कर सड़क पार करा देता, यहाँ तो खोपड़ी के अंदर वाली आँखें नहीं हैं। ऊपर कुछ ऐसे लोग हैं, जिनके आँख ही आँख है, हाथ है ही नहीं। सो इस स्थिति में कुत्ते का साथ जरूरी हो गया है। वह भी खाता हुआ कुत्ता तो अच्छा ही होता है। वह तब तक भौंकता नहीं, जब तक उसे यह संदेह न हो कि कोई अन्य कुत्ता उसका हिस्सा बँटाने आ रहा है। एक कुत्ता अपने परिचित कुत्ते के साथ भौंक सकता है, उससे पकड़म-पकड़ाई खेल सकता है, उसके साथ अपरिचित कुत्ते पर भौंक सकता है, किंतु अपनी रोटी नहीं बाँट सकता।
अंधे और कुत्ते के इस गठजोड़ को जिसने समझ लिया, वही इस व्यवस्था में सुखी हो सकता है। अंधे का पीसा कुछ आटा उसे भी मिलता रहेगा।
- हरिशंकर राढ़ी
(19 दिसंबर, 2020)